क्या फेयर ही लवली है : नंदिता दास

नंदिता दास
जब से मेरा सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ है और मेरे बारे में लिखा जाने लगा है, दस में नौ लेखों की शुरुआत इस बात से होती है कि मेरा रंग धूमिल या मटमैला है। अच्छे से अच्छा पत्रकार भी यह बताना नहीं भूला है कि मेरी त्वचा का रंग कैसा है।

माना जाता है कि अभिनेत्री तो गोरी ही होगी। अतः मेरा अनुमान है कि  जो इससे हट कर है, वह सामान्य से विचलन है। या, यह एक ऐसी कंडीशनिंग है, जिससे लोग बच नहीं पाते? अपने अनुभवों से मैं कह सकती हूँ कि बचपन से ही जब भी मुझे किसी से मिलाया जाता रहा है या  किसी को मेरे बारे में बताया जाता रहा है, तब मेरी त्वचा का रंग अपरिहार्य रूप से एक मुद्दा रहा है।  लोग कहते थे – ‘बेचारी उसका रंग कितना काला है’ या ‘रंग काला होने के बावजूद तुम्हारे  फीचर कितने सुंदर हैं!’। लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी इस बात की चर्चा नहीं की। अगर वे न होते, तो मैं यही मान कर बड़ी होती कि मैं किसी काम की नहीं हूँ। उनके कारण, मैंने बहुत-सी अन्य रुचियों को विकसित करने के माध्यम से अपने को परिभाषित करना सीखा। बाद के वर्षों में जा कर यह मेरे सामने स्पष्ट हुआ कि मैं कितनी भाग्यशाली रही हूँ।

यह सोच कर मुझे हमेशा अचरज हुआ है कि जिन चीजों के साथ हमारा  जन्म होता है, उन्हें ले कर हमें गर्वित या शर्मिंदा क्यों होना चाहिए। मेरा जन्म एक हिंदू, एक औरत, एक भारतीय या काले रंग में हुआ है, इसमें मेरा अपना योगदान क्या है? इसके परिणाम समझने में मुझे कुछ वक्त लगा, लेकिन जब मैं गहराई में गई, तब समझ पाई कि क्यों इतनी सारी लड़कियाँ अपने को इसलिए अपर्याप्त समझती हैं, क्योंकि वे सौंदर्य के सामाजिक मानकों पर खरी नहीं उतरतीं। इसने उनके व्यक्तित्व को  शर्मीला, संकोची, असुरक्षित बना  दिया था – उनके मन में यह भावना भर दी थीं कि वे  दूसरी लड़कियों से कमतर हैं। चूँकि मेरे आत्मविश्वास में कभी कमी नहीं आई, मैं लगातार संघर्ष करती रही कि उन्हें इस समझ की व्यर्थता  कैसे समझाऊँ।

धीरे-धीरे मैंने पाया कि मैं रंग की समस्या पर एक अभियान में लग गई हूँ। जब कोई सेल्स गर्ल मुझे गोरा होने की क्रीम बेचने की कोशिश करती है या ब्यूटी सैलून की महिला मेरी त्वचा को ब्लीच करने  का इसरार करती है, मैं पाती हूँ कि मैं इसके खिलाफ उन्हें भाषण पिला रही हूँ।  शायद इसमें से कुछ भाषणबाजी अनावश्यक होती है, क्योंकि ये औरतें खुद भी सिस्टम का शिकार हैं। विचित्र बात यह है कि कोई कितना ही शिक्षित या संपन्न हो, इससे इस पूर्वाग्रह में कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सौंदर्य की जड़ मान्यताओं से ऊपर नहीं उठ पाते।  

गोरे बच्चे की कामना कुछ माता-पिताओं में यह विश्वास भरती है कि सुबह-सुबह दूध पीने से बच्चा गोरा होगा। मेरा एक दोस्त बचपन भर पीड़ाग्रस्त रहा, क्योंकि उसका भाई गोरा था और उससे पूछा जाता था कि तू कैसे इतना काला पैदा हुआ। किसी न किसी रूप में ऐसी अनगिनत कहानियाँ हममें से हरएक ने सुनी हैं, अनुभव की हैं अथवा खुद फैलाई हैं। कुछ ‘सुप्त सौंदर्य’ जैसी परी कथाओं के माध्यम से, कुछ इस तरह की बातचीत से कि ‘इनमें सब से सुंदर कौन है’ और कुछ छोटी लड़कियों के लिए स्नो ह्वाइट  और बार्बी जैसे रोल मॉडल बन जाने से।

शुरू बचपन से ही  संदेश बहुत स्पष्ट होता है और बाद के वर्षों में  बहुत-से तरीकों से इस संदेश को गहरा किया जाता है। फिल्मी गीतों में सुंदर लड़की को गोरी कह कर संबोधित किया जाता है या ‘काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं’जैसे गीतों के माध्यम से कहा जाता है कि जिसका रंग काला है, उसका दिल उजला होता है। जहाँ भी देखिए, हर जगह  बहुत ही सूक्ष्म और जबरदस्त  तरीके से यह बात प्रचारित की जाती है कि फेयर ही लवली है।
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