हम अलग : सविता पाठक

"भारतीयों की त्वचा का काला रंग कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। बल्कि, काला, साँवला या गेहुँए को मूल भारतीय रंग कहा जा सकता है। हमारे सबसे लोकप्रिय भगवान यानी श्रीकृष्ण से लेकर शिव और राम तक काले या साँवले थे और अभी भी उनके चित्र इसी रंग के साथ बनाए जाते हैं। "

हम अलग-अलग भाषाएँ ही नहीं बोलते। हम केवल अलग-अलग त्योहार ही नहीं मनाते और हमारा केवल रहन-सहन और वेश-भूषा ही अलग नहीं है। बल्कि, एक इंसानी नस्ल के तौर पर भी हम अलग-अलग हैं। हाँ, यह जरूर है कि हमारी नस्लों के बीच हुई अंतरक्रियाओं और अंतरसंबंधों के चलते धीरे-धीरे हम एक हिन्दुस्तानी नस्ल के तौर पर भी विकसित हो रहे हैं। इस नस्ल के अलग-अलग गुण हमें अलग-अलग इंसानों में दिखाई पड़ जाते हैं।

अगर हम पूरी दुनिया का नस्लीय वर्गीकरण करें तो मोटा-मोटी तीन इंसानी नस्लें दुनिया में पाई जाती हैं। इन्हें इनके रंगों से पहचाना जाता है: गोरे, काले, और पीले। यानी आर्यन, नीग्रोइड और मंगोलायड। मोटे तौर पर इन्हें रंगों के आधार पर पहचान भले ही दे दी गई हो, लेकिन शारीरिक बनावट और खासियतों के आधार पर भी वे एकदम अलग दिखाई पड़ते हैं। हालाँकि, इन नस्लों में कई छोटी-छोटी सहायक नस्लें मौजूद हैं। इनकी भी विभिन्नताएँ हैं। जैसे इथियोपिया और सोमालिया के काले लोग अपनी शारीरिक बनावट में ठीक वैसे ही नहीं हैं जैसे दक्षिण अफ्रीका के काले लोग हैं। इसी तरह, स्पेन के गोरे लोगों में और नार्वे और रूस के गोरे लोगों में शारीरिक विभिन्नताएँ मौजूद हैं। यही हाल, पीले लोगों का भी है। जापान के पीले लोगों में और म्याँमार के पीले लोगों में बारीक अंतर मौजूद हैं। लेकिन, इन विभिन्नताओं के बावजूद वे मोटा-मोटी एक इंसानी नस्ल के छाते में शामिल किए जाते हैं। इसे एक ही इंद्रधनुष के अलग-अलग रंग कहा जा सकता है। ऐसे ही, हम नस्ल के तौर पर भले ही अलग-अलग हों, लेकिन हमारी शारीरिक बनावट की समानताएँ हमें यह भी बताती हैं कि हम हैं एक ही जाति के। यानी मानव जाति के।

इसे भाषाई परिवारों के आधार पर भी समझा जा सकता है। दुनिया में कुल मिला कर पाँच या छह भाषाई परिवार हैं : रोमन भाषा परिवार, अरेबियन भाषा परिवार, आर्यन भाषा परिवार, चीनी भाषा परिवार या मैंडरिन, द्रविड भाषा परिवार। अरब के ज्यादातर देश अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं, लेकिन अपने ध्वनि संकेतों यानी अक्षरों की बनावट और उनके लिखने के तरीकों से वे खुद को एक ही भाषा परिवार का जाहिर करते हैं। कुछ ऐसा ही अन्य भाषाई परिवारों के साथ भी है।

भारत में मुख्यतः तीन प्रकार की इंसानी नस्लें पाई जाती हैं :  द्रविड, इंडो-आर्यन और मंगोलायड। शारीरिक बनावट की अलग-अलग खासियतों के चलते इन्हें अलग से पहचाना जा सकता है। आम तौर पर उत्तर भारत के राज्य यानी पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, राजस्थान से ले कर मध्य प्रदेश और बिहार तक हम इंडो-आर्यन नस्ल का फैलाव देख सकते हैं। लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि यहाँ पर केवल यही नस्ल रहती है। हमारी संस्कति की तरह हमारी नस्लीय विशेषताएँ भी घुली-मिली हैं और एक ही व्यक्ति के शरीर में कई बार अलग-अलग नस्लीय गुणों को देखा जा सकता है। लेकिन, मोटे तौर पर इन्हें भारतीय आर्यों की जमीन कहा जा सकता है। इसी तरह, दक्षिण के राज्यों में द्रविड नस्ल की बहुलता है। केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश को इसकी मुख्य भूमि कहा जा सकता है। जबकि, पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में आम तौर पर मंगोलायड नस्ल के लोगों का बाहुल्य है।

इसके अलावा भी हमारे देश में नस्लीय विभिन्नता के कई अलग-अलग गुण दिखाई पड़ते हैं। जैसे कई आदिवासी समूह अपनी अलग शारिरिक विभिन्नताएँ प्रदर्शित करते हैं। जबकि, कई जगहों पर हमारे यहाँ के नस्लीय समूहों पर पड़े नीग्रो प्रभावों को भी देखा जा सकता है। दरअसल, भारत की सांस्कृतिक, भाषाई और नस्लीय विभिन्नताओं को देखते हुए इस पर बड़े गहन शोध की जरूरत है।
भारत की इंसानी नस्लों को अलग-अलग वर्गीकृत करने की सबसे पहली कोशिश शायद अँग्रेज विशेषज्ञ हरबर्ट होप रिस्ले ने 1995 में की थी। उन्होंने तीन अलग-अलग भारतीय नस्लों की पहचान करने के साथ ही कई सहायक या द्वितीयक नस्लों की भी पहचान की। इसके बाद से कई तरह से भारतीय नस्ल को परिभाषित किया जाता रहा है। यहाँ तक कि इसमें एक औपनिवेशिक नजरिया भी शामिल रहा है। कहा जाता था कि अँग्रेज भी आर्य हैं और भारतीय भी आर्य हैं। यानी भारत में शासन करने वाले कोई बाहरी नहीं हैं, वे भी आर्य ही हैं। इस आधार पर अँग्रेजी शासन को उचित ठहराने की दलीलें भी पेश की जाती थीं।

आजादी के पहले और आजादी के बाद से ले कर अभी तक भारत के मूल निवासी कौन थे और कौन बाहर से आए थे, इसे ले कर बहस के अलग-अलग सिरे देखे जा सकते हैं। कहीं पर इसे सुर-असुर संग्राम से जोड़ा जाता है तो कहीं पर दलित और सवर्ण विभाजन से। यहाँ तक कि एक समय की प्रचलित धारणाओं को गलत साबित करने के लिए भी तर्क पेश किए जाते रहे हैं। किसी के लिए महिषासुर राक्षस और असुर है तो किसी अन्य के लिए वही असली भगवान है। कुछ लोग महिषासुर या रावण की मौत को वध की संज्ञा देते हैं तो कुछ लोग इसे उस समय के बलशाली लोगों द्वारा छल-बल से की गई हत्या करार देते हैं। 

लेकिन, इसे काफी  हद तक स्वीकार करके चला जा सकता है कि भारतीयों की त्वचा का काला रंग कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। बल्कि, काला, साँवला या गेहुँए को मूल भारतीय रंग कहा जा सकता है। हमारे सबसे लोकप्रिय भगवान यानी श्रीकृष्ण से लेकर शिव और राम तक काले या साँवले थे और अभी भी उनके चित्र इसी रंग के साथ बनाए जाते हैं। संस्कृति और साहित्य में भी श्याम रंग के प्रति एक खास तरह का लगाव दिखाई पड़ता है। अगर यह हमारी संस्कृति में रचा-बसा नहीं होता तो क्या हम श्याम रंग के प्रति इतने आकर्षित हो सकते थे? ऐसा शायद ही होता, क्योंकि यूरोपीय गोरों ने हर काली चीज को खराब की संज्ञा दी है। यहाँ तक कि ब्लैक मार्केट और ब्लैक मनी जैसे शब्दों का ईजाद भी किया।

अंग्रेजों के तमाम सांस्कृतिक प्रभावों के बावजूद हमारे अंदर काले और साँवले रंग का आकर्षण कहीं अंदर तक बसा हुआ है। आखिर क्यों साँवला रंग और घुँघराले बाल अभी भी सौंदर्य प्रतीकों में शामिल हैं? यह बात अलग है कि बाजार, संस्कृति और समाज की वर्चस्वशाली  प्रवृत्तियों के चलते वह बाहर नहीं आ पाता।
सविता पाठक

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