डॉ. सुभाष खंडेलवाल |
कश्मीर की समस्या दिन प्रतिदिन गंभीर बनती जा रही है। भारत के 17 सैनिक पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमारी सीमा में घुस कर मार दिए। यह हमारी सुरक्षा व्यवस्था और खुफिया तंत्र की विफलता है। मौजूदा केन्द्रीय सरकार अपने ही जाल में उलझ कर रह गई है। वह युद्ध का स्वाँग करती है और शांति की बात करती है। कभी शरीफ के समक्ष शपथ लेती है। आतंकवादियों द्वारा कश्मीर में हिंसा करने पर बयानों के बम बरसाती है, फिर वापस नवाज शरीफ के यहाँ चाय पर पहुँच जाती है। कश्मीर में पुन: हिंसा होती है, फिर बयानों के बम गिरने लगते हैं। यह सिलसिला लगातार जारी है। अंजाम समझ में नहीं आता।
हकीकत यह है कि दोनों ही प्रधानमंत्री आतंकवाद के आगे बेबस हैं। फर्क इतना है कि भारत कभी भी आतंवाद को प्रश्रय नहीं देता और पाकिस्तान प्रश्रय देता है। उसकी अपनी धार्मिक कट्टरताएँ हैं, विवशताएँ हैं जिनके जाल में वह इस कदर उलझा है कि एक अंध-धार्मिक कठमुल्लावादी राष्ट्र की दिशा में चला गया है। हमारे देश के कुछ लोग अपनी तुलना उनसे, उनकी धर्मांधता से, उनकी कट्टरता से करते हैं। वे किसी के दुर्भाग्य को अपना सौभाग्य बनाना चाहते हैं। हम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में दुनिया में अपना परचम लहरा रहे हैं। याद रखें कि इस तरह की धार्मिक कट्टरताएँ आज कश्मीर को और कल देश को बाँटेंगी।
मैं सात वर्ष पूर्व कश्मीर गया था। वहाँ के जनजीवन को, उनके उद्योग- व्यापार को, उनकी संस्कृति को मैंने नजदीक से देखने-समझने का प्रयास किया था। तब समझ में आया था, हम कश्मीर को अपना मस्तक मानते हैं और कश्मीर भारत को अपना दिल मानता है। कश्मीर के कालीन से ले कर शाल, किशमिश, केसर सब कुछ भारत पर निर्भर करता है। उनकी रोजी-रोटी पर्यटन है। पर्यटक उनके दिल की मुख्य आर्टरी है, इसलिए पर्यटक उनकी जिंदगी है। वह रुक गया तो वे खत्म हो जाएँगे। यही कश्मीर का मर्म है। उनके पेट की आग इन दंगों से बुझती नहीं, वरन बढ़ती है। शांति ही इसका एकमात्र हल है। दंगे और कत्ले-आम कुछ आतंकवादियों की फितरत है। वहाँ की जनता गुस्सा कर सकती है। लेकिन हिंसा उसकी हमेशा की फितरत नहीं हो सकती।
हम पाकिस्तान को 1965 और 1971 में हरा चुके हैं। हम तीसरी बार पुन: हरा सकते हैं। हमारा सैन्य बल मुस्तैद है, मजबूत है। लेकिन यह न भूलें कि अब युद्ध जमीन से ज्यादा आसमान पर होगा। दोनों ही देशों के पास अणु बम हैं। युद्ध से जो विनाश होगा उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। दुनिया के बड़े से बड़े युद्ध के बाद भी मरघट का सन्नाटा गूँजा है। महाभारत हो, अशोक का कलिंग हो, हिरोशिमा हो या नागासाकी हो, वियतनाम हो या अफगानिस्तान हो, चीन-भारत हो या भारत-पाकिस्तान हो, बाद में पश्चात्ताप ही हाथ लगा, शांति वार्ता करनी पड़ी। हमारे देश में पंजाब, असम में सन 1980-84 के बीच हिंसा का लावा बहाया गया था। 1989 से 1992 में, 2002 में सांप्रदायिकता का लहू बहाया गया था। जातीयता के नाम पर आरक्षण की आग ने समय-समय पर देश को जलाया है। लेकिन तमाम जटिलताओं, विषमताओं के बाद भी देश लौट कर मुख्यधारा में आता रहा है। आज सरकार में जो लोग हैं, वे कांग्रेस सरकार के समय भी बम बरसाने वाले बयान देते थे। वे आज क्या कर रहे हैं? यह प्रश्न इनसे पूछा जा रहा है, लेकिन जब काला धन चुनावी जुमला हो सकता है तो बीते हुए कल के बयानों को भी देशभक्ति का इनका जुमला माना जा सकता है।
अपनी पुलिस, अपने सैनिकों को, वह भी धोखे से शहीद होते देखना हर भारतवासी को बार-बार गुमराह कर रहा है। लोग चाहे जिस भाषा में युद्ध की बात कर रहे हों, यह लोगों का काम नहीं है। यह सिर्फ सेना का काम है। जनता से सरकार बनी है और सरकार को देश हित और विदेश नीति के अनुरूप निर्णय ले कर समस्या का समाधान करना चाहिए। आतंकवाद के नाम पर अपनी ही जनता से लड़ना पड़े, यह किसी भी देश का दुर्भाग्य होता है, देश तबाह होता है। चाहे वह समस्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो। कश्मीर 84 लाख एकड़ था। आज हमारे पास 42 लाख एकड़ है। 42 लाख एकड़ पाकिस्तान और चीन के पास चला गया है। हम बचे हुए मूल को ले कर ही संकट में है। पुराना मूल कैसे लाएँगे? हमारी सरकार कहाँ पर विफल हो रही है? क्या उसका खुफिया तंत्र कमजोर है? क्या निर्णय लेने में अकर्मण्यता है? आतंकवादियों के ठिकानों पर, चाहे वे कश्मीर में हों या पाकिस्तान में, उनके ठिकानेदारों को ठिकाने क्यों नहीं लगा पा रहे हैं? प्रश्न सरल है, लेकिन उत्तर कठिन है, भविष्य के गर्भ में है।
हम एक चीज हमेशा याद रखें कि आजादी के बाद से ही देश कश्मीर को और कश्मीर देश को अपने-अपने नजरिए से देखता रहा है। दोंनों ही एक-दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन इनके बीच जब-जब जातीयता आ जाती है, कश्मीर सुलगता है। पाकिस्तान में छुपी बैठी आतंकवादी ताकतें इसे और सुलगाती हैं। लेकिन इन नजरों में जब प्यार और विश्वास आता है, खुशबू फैलती है, फूल मुसकराते हैं और कश्मीर खिल उठता है। हम यह न भूलें कि इसी जनता ने आतंकवादियों की चेतावनी के बावजूद 65 प्रतिशत से अधिक मतदान कर भारत के संविधान में भरोसा जता कर भाजपा की महबूब सरकार बनाई है।
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