आधुनिक भारतीय के जीवन में कला : संस्कृति : रवीन्द्र त्रिपाठी

आधुनिक भारतीय के जीवन में कला

"भारत में जिस तरह का आर्थिक विकास हो रहा है या हुआ है, वह भी  कला को सामाजिक स्तर पर हाशिए की तरफ धकेल रहा है। कलाएँ भी तभी विकसित होती हैं जब कलाकार आर्थिक स्तर पर स्वनिर्भर हों। "

जब कोई मुझसे कहता है कि आधुनिक भारतीय के जीवन में कला विषय पर लिखें, तो कई समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। एक तो आधुनिक भारतीय किसे कहें? वैसे आधुनिक या आधुनिकता एक सामान्य पद (जेनरिक कनसेप्ट) है और किसी भी समकालीन प्रक्रिया को आधुनिक कहने का चलन है। पर यहाँ भी निजात नहीं है, क्योंकि राजकिशोर जी का कहना है, समकालीन भारतीय के जीवन में कला पर लेख नहीं चाहिए। उनके कहने का आशय यह है कि समकालीन तो भारत के ग्रामीण या आदिवासी भी हैं और उनके जीवन में कला की खास अहमियत अभी भी है। आधुनिक भारतीय से उनका आशय शहरी और खाते-पीते मध्यवर्ग और उच्च वर्ग से है। लेकिन यहाँ भी कई समस्याएँ हैं।  एक तो यह कि पूरे भारत के शहरी और मध्यवर्गीय समाज और उसके जीवन में निहित कला की अहमियत या मौजूदगी को ले कर भी कोई सरल या सर्वसम्मत निष्कर्ष निकालना कठिन है। कम से कम मेरे लिए। पहला और सबसे कारण तो यह है कि भारत एक बहुत बड़ा देश है और यहाँ के शहरों की बनावट और बसावट में भी कई ऐतिहासिक अनुभव उपस्थित हैं। सिर्फ एक मिसाल दूँगा। वाराणसी भारत के प्राचीन शहरों में है और यहाँ के दैनंदिन जीवन में कई तरह के कला-अनुभव सदियों से मौजूद हैं। संगीत की यहाँ पुरानी परंपरा आज भी जीवित है और आधुनिक हिंदी  साहित्य की कई धाराएँ यहाँ से निकलीं। दूसरी तरफ कोलकोता या मुंबई मुख्य रूप से औपनिवेशिक प्रक्रिया में उपज शहर हैं और यहाँ भी कई तरह की कला प्रवृत्तियाँ सक्रिय रही हैं - उपनिवेशवाद के दौर में भी और आजादी के दौर में भी। आज भी कोलकता में प्रखर कला चेतना है। उसी तरह मुंबई में उपनिवेशवाद के दौर में और उसके  बाद पेंटिंग से ले कर साहित्य में कई तरह की आधुनिकताएँ आईं। अन्य़ बड़े और मझोले शहरों का कला इतिहास भी संश्लिष्ट है। चाहे आप बंगलुरु को लें या दिल्ली को। परतुँ यहाँ भी सामान्यीकरण मुश्किल है। क्या  वाराणसी दलित साहित्य के लिए तैयार है? वहाँ कोई बड़ा दलित लेखक क्यों नहीं हुआ? या, श्रेष्ठ नारी लेखन  (नारीवादी तो छोड़ ही दीजिए) भी वहाँ न बीसवीं सदी में हुआ और न इक्कीसवीं सदी में हो रहा है। नारी लेखन या नारीवादी लेखन भी दिल्ली या मुंबई में जिस अपेक्षाकृत सहजता से संभव है, वह वाराणसी में संभव नहीं है। क्या इसका कोई समाजशास्त्रीय कारण है?


फिर भी समकालीन शहरी भारतीय जीवन के भीतर कला की क्या स्थिति है – इस बारे में कुछ बातें लक्षित की जा सकती हैं। इसके बारे में कोई निष्कर्ष निकालना आसान नहीं है लेकिन कुछ स्थितियों को पहचाना जा सकता है। आजादी के बाद भारतीय जीवन में शहरीकरण बढ़ा है, इससे तो कतई इनकार नहीं किया जा सकता है। पर जिस अनुपात में शहरीकरण हुआ है क्या उसी अनुपात में, या उसके आसपास, कला चेतना का विस्तार हुआ है?  क्या उसी अनुपात में कला संस्थाएँ बढ़ी हैं? मोटे तौर पर जब कला चेतना की बात करते हैं तो हमारा आशय साहित्य, पेंटिंग, मूर्तिशिल्प, संगीत, फिल्म, नाटक-रंगमंच से होता है। मोटे तौर पर यह कहा जाता है कि महाराष्ट्र में कुल जनसंख्या के लगभग चार-फीसदी  लोग नाटक देखने जाते हैं। क्या हिंदी भाषी इलाके में नाटक के इतने दर्शक हैं?

अक्सर यह सुनने में आता है, खासकर उत्तर भारतीय और हिंदी भाषी शहरों में, कि आज की कला यानी पेंटिंग, मूर्तिशिल्प आदि समझ में नहीं आती। मॉडर्न आर्ट को ले कर कई लतीफे हैं जिसमें एक को तो मैं बरसों से सुन रहा हूँ कि कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच दो - वही मॉडर्न आर्ट है। यह सिर्फ लतीफा नहीं है बल्कि एक सामान्य बोध (कॉमनसेंस) बन चुका है। जरा बारीकी से इस सामान्य बोध का परीक्षण करें तो मालूम होगा कि यह हमारी शिक्षा पद्धति और असांस्कृतिक शहरीकरण (इसकी चर्चा हम आगे करेंगे) का नतीजा है। भारतीय शिक्षण पद्धति की खामियों और कमियों की चर्चा काफी होती है। पर इस पहलू की चर्चा कम ही होती है कि हमारे गाँवों को छोड़ दीजिए, शहरों में कला शिक्षण की स्थिति क्या है? कितने सरकारी और पब्लिक स्कूलों में कला शिक्षण गंभीरता से होता है? बिहार में पटना कला और शिल्प महाविद्यालय के छात्रों द्वारा हाल में चला आंदोलन इस दिशा में कुछ संकेत कर सकता है। इस महाविद्यालय के छात्र अपने एक ऐसे प्राचार्य के खिलाफ आंदोलनरत हैं जिसकी कला की कोई पृष्ठभूमि नहीं है और जिस पर आरोप है कि वह जोड़तोड़ से इस पद पर पहुँच गया है। फिलहाल इस बात को छोड़ दें कि प्राचार्य कैसा है और इस मुद्दे को देखें कि इस महाविद्यालय को ले कर बिहार के नेताओं, कलाकारों और नागरिक समाज का क्या रवैया रहा तो कुछ बातें समझी जा सकती हैं। यह ठीक है कि कुछ रंगकर्मी और कुछ साहित्यकार संघर्षरत छात्रों के साथ आए। कुछ स्थानीय कलाकार भी। लेकिन यदि कुछ वामपंथी छात्र संगठनों को छोड़ दें तो बाकी का राजनीतिक समाज और नागरिक समाज भी इस सारे मसले पर अन्यमनस्क ही रहा। आखिर राज्य के एक कला महाविद्यालय, जिससे निकले कई छात्र अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुके हैं, के वर्तमान और भविष्य को ले कर वृहत्तर समाज मौन क्यों है? यही सवाल पुणे के फिल्म संस्थान के ले कर चले और अब बुझ चुके आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में भी उठ सकता है।

 "सिर्फ कलाकारों के चलते समाज में कला चेतना नहीं फैलती। वह फैलती है समाज के भीतर निहित कला संवेदनशीलता के कारण। पिकासो क्या पिकासो बन पाते अगर वे स्पेन छोड़ कर पेरिस नहीं जाते जहाँ एक परिष्कृत कला चेतना थी?"

आखिर फिल्म एक आधुनिक कला है और इस कला के प्रशिक्षण और शिक्षण को ले कर इतनी उदासीनता क्यों? भारत में कला प्रशिक्षण को के दूसरे संस्थानों का जाय़जा लें तो और भी कई निष्कर्ष निकलेंगे। और, उनमें सामान्य तो यही होगा कि न सिर्फ सरकार के स्तर पर बल्कि समाज के स्तर पर भी कला संस्थानों की गुणवत्ता को ले कर नागरिक समाज में कोई गहरी चिंता नहीं है।

ओडिसी नृत्य की एक मुद्रा
ऐसे में, जिसे हम शहरी मध्यवर्ग का खाता-पीता हिस्सा कहते हैं (गरीबों की  तो बात की छोड़ दीजिए) उसमें कला चेतना कैसे विकसित होगी? आकस्मिक नहीं कि भारतीय समाज में, और उत्तर भारतीय समाज में तो और भी अधिक, आधुनिक कला और कलाकारों को ले कर कई तरह के पूर्वग्रह हैं। ये पूर्वग्रह सिर्फ उन लोगों में नहीं हैं जो कला-संस्कृति से दूर माने जाते हैं, जिनमें आप ज्यादातर व्यवसायियों, नौकरीपेशा वर्ग, नेताओं और कामगारों को रखते हैं, बल्कि उनके भी हैं जो कला संस्कृति से करीबी माने जाते हैं, जैसे अध्यापक, पत्रकार आदि। आकस्मिक नहीं कि मकबूल फिदा हुसेन के कट्टर विरोधी इसी दूसरी तरह के वर्ग से आए। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि उनके भीतर किसी तरह का सांप्रदायिक बोध नहीं था (हालाँकि वह भी था) बल्कि आधुनिक कला संबंधी उनके घोर दकियानूसी विचार थे। और साथ-साथ अज्ञान भी। तब दिल्ली में बैठी एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार भी हुसेन की कला को ले कर एक हलका-सा सकारात्मक कदम भी नहीं उठा सकी। अगर कोई हुसेन की कला यात्रा पर निगाह डाले तो उसे आसानी से पता चल जाएगा कि जिसे पारंपरिक भारतीय कला कहते हैं और जिसमें हिंदूपन भी (हिंदुत्व नहीं) मौजूद है उसके सबसे बड़े आधुनिक आधुनिक चित्रकार हुसेन थे या हैं। आने वाले वक्त में जब हुसेन-विवाद पर कोई विशद अध्ययन होगा, और वह होगा ही, तो इन पूर्वग्रहों के बारे मे हमारी समझ अधिक बढ़ेगी। हुसेन-विवाद एक इंडिकेटर या संकेतक है उस शहर-केंद्रित भारतीय समाज में आधुनिक कला की स्थिति को समझने के लिए।

पर यह अकेला इंडिकेटर नहीं होगा।  आप दिल्ली की किसी गैलरी में जा कर सर्वेक्षण कीजिए कि वहाँ समाज के किस वर्ग के लोग कला-प्रदर्शनियाँ देखने आते हैं। यह तो एक मोटी-सी बात है कि हमारी आधुनिक कला पर बाजार का नियंत्रण है या हमारी आधुनिक कला बाजार केंद्रित होती जा रही है। पर वह क्यों ऐसी होती जा रही है, या सच में वह बाजार केंद्रित है भी या नहीं, इस बारे में विचार विमर्श कम ही होता है। य़ूरोप के बड़े शहरों के बारे में हम पढ़ते रहते हैं कि वहाँ के कला-संग्रहालयों में भारी भीड़ रहती है या वहाँ के बड़े शहरों में सार्वजनिक स्थानों पर मूर्तिशिल्प स्थापित किए गए हैं। ऐसी बातें भारतीय शहरों के बारे में कितनी होती हैं? कोई भी कला इसलिए भी समाज मे पनपती या विकसित होती है कि उसके बारे में नागरिक और सरकारी समाज में किस तरह का उत्साह है, उसे ले कर कितनी उत्सुकता है। नेहरू युग को छोड़ दें तो बाद के दौर में सरकारी बजट का कितना प्रतिशत सार्वजनिक कला पर खर्च  किया गया? हमारी नगरपालिकाएँ और नगर निगम सार्वजनिक कला को कितना महत्व देते हैं? क्या इसके बारे में मीडिया में चर्चा होती है? क्या हमारे नेता राष्ट्रीय स्तर  से ले कर स्थानीय स्तर पर कला के बारे में किसी तरह का विचार रखते हैं? कितने नेता संगीत कार्यक्रमों में जाते हैं या नाटक देखते हैं? नेताओं को छोड़ दीजिए, कितने प्रतिशत विश्वविद्यालयी अध्यापक या नौकरशाह सांस्कृतिक समारोहों में अपनी रुचि की वजह से भाग लेते हैं? ऐसे और कई प्रश्न हैं जो उठने चाहिए। सिर्फ कलाकारों के चलते समाज में कला चेतना नहीं फैलती। वह फैलती है समाज के भीतर निहित कला संवेदनशीलता के कारण। पिकासो क्या पिकासो बन पाते अगर वे स्पेन छोड़ कर पेरिस नहीं जाते जहाँ एक परिष्कृत कला चेतना थी?

भारतीय समाज में टेलीविजन को गंभीर कला विमर्श का विरोधी माना जाता है। समाचार चैनलों का जो बुरा हाल है उसने भी इस धारणा को बढ़ाया है ऐसा कहने में कोई अतिरेक नहीं है। पर तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जिसे नजरअंदाज करना कठिन है, वह यह है कि इंटरटेनमेंट टीवी चैनलों ने आधुनिक नृत्य को कुछ हद तक आगे बढ़ाया भी है। नृत्य भी, खासकर भारतीय समाज में, कई तरह भ्रांत धारणाओं का शिकार है। भारतीय समाज में शास्त्रीय कहे जानेवाले कुछ नृत्यों का तो थोड़ा सम्मान है भी, लेकिन आधुनिक नृत्य को तो गंभीरता से लेने का रिवाज ही नहीं है । नारी शरीर को लेकर शहरों में भी कई दकियानूसी सोच हैं जो नृत्य के लोकप्रिय बनने की राह में अवरोध खड़ा करते हैं। कुछ डांस-रिएलिटी शो की वजह से बड़े शहरों में आधुनिक नृत्य को ले कर थोड़ा उत्साह है भी। लेकिन गोरखपुर, आजमगढ़, छपरा, रीवा, बीकानेर जैसे शहरों में आधुनिक नृत्य के लिए कितनी संभावनाएँ हैं? और यह याद रहे कि नृत्य सिर्फ महिलाओं या लड़कियों की कला नहीं है। पुरुष भी नृत्य करते हैं। लेकिन अगर ऊपर जिन मझोले शहरों का नाम लिया गया है वहाँ के पुरुष भी अगर नर्तक बनना चाहें तो उन्हें सामाजिक स्वीकृति शायद ही मिले। हालाँकि नृत्य एक भारतीय कला है और पश्चिम से नहीं आई है। लेकिन हिंदी भाषी समाज में बहुत कम पुरुष नर्तक बनने का ख्वाब देखते हैं। कुछ अपवाद होंगे, लेकिन वे नियम को  पुष्ट ही करते हैं।

भारत में जिस तरह का आर्थिक विकास हो रहा है या हुआ है, वह भी  कला को सामाजिक स्तर पर हाशिए की तरफ धकेल रहा है। कलाएँ भी तभी विकसित होती हैं जब कलाकार आर्थिक स्तर पर स्वनिर्भर हों। हिंदी की बात करता हूँ। किसी हिंदी लेखक के लिए आज यह संभव नहीं है कि वह सिर्फ लेखन के बल पर जीवन यापन कर ले। पेंटरों के लिए भी मुश्किल होता जा रहा है। कुछ बड़े पेंटर शायद आर्थिक संकट न झेल रहे हों लेकिन नब्बे फीसदी झेल रहे हैं। क्यों? इसलिए कि न समाज में पाठक हैं और न कला के खरीदार। यह बात घिसी-पिटी हो चुकी है, लेकिन इससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है कि अगर कोई लेखन के बल पर जीना चाहे तो उसकी स्थिति विदर्भ के किसान की तरह होगी। इस रूपक का इस्तेमाल मैं अनजाने में नहीं कर रहा हूँ। बल्कि सुचिंतित तौर पर कर रहा हूँ।  जिस तरह भारत का किसान सीमांत पर जा रहा है उसी तरह भारत का कलाकार भी। यानी खेतिहर और कलाकार - दोनों का भवितव्य असमय मृत्यु है। मौजूदा भारतीय समय, जिसे हम आधुनिक समय भी कह सकते हैं, का कटु सत्य यही है। यदि आपके पास सरकारी नौकरी है, या बड़ा व्यवसाय है, या आप दलाली में निष्णात हैं, और इन सबके साथ आप कला में किसी स्तर पर, या किसी विधा में  सक्रिय हैं तो आप कला जगत में भी छा सकते हैं। एक प्रोफेसर के लिए आलोचक-शिरोमणि का तख्त पाना आसान है, जैसे एक अफसर के लिए कवि होना और किसी बड़े व्यावसायी की पेंटर पत्नी या बेटी के लिए बड़ी गैलरी में आर्ट शो करना। फिल्म की दुनिया में तो वही टिकेगा जिसकी पीठ पर धन्नासेठ यानी बड़े प्रॉड्यूसर का हाथ हो। वरना आप कुछ दूर तक दौड़ेंगे और फिर घिसटना शुरू कर देंगे।आधुनिक या समकालीन कला परिदृश्य का यह सबसे बड़ा दुखांत है।
tripathi.ravindra@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें