पत्थरों के ढेर को पहाड़ नहीं कहते : संजय गौतम

संजय गौतम
खबर है कि मध्य-पूर्व की एक सरकार पहाड़ का निर्माण करा रही है। बड़े और ऊंचे पहाड़ का निर्माण। ऐसे पहाड़ का निर्माण जो बादलों को लुभा सके और बारिश करा सके। सभ्यता तो पहाड़ों को तोड़ने और जंगल को काटने से ही विकसित हुई है। अपने देश में डायनामाइट लगा-लगा कर लगातार पहाड़ों का सीना चाक किया जा रहा है और चिकनी, चमकीली, चौड़ी सड़कें बन रही हैं। कई-कई किलोमीटर तक केवल ईंट-पत्थरों के मकान नजर आ रहे है, दुकानें नजर आ रही हैं, कांप्लेक्सों-मॉलों की श्रृंखला नजर आ रही है। एक भी पेड़ की छाया नहीं, जहां कोई ठहर कर विश्राम कर सके। सारे पेड़ राक्षसी आकार की मशीनों से उखाड़ फेंके जा रहे हैं। दिन में केवल धूप और रात में लाइटों की चमक। लाइटों में चमकते हैं पहाड़ों से काट कर लाए गए तरह-तरह के पत्थर। आंखें फिसल जाती हैं। मॉलों-कांप्लेक्सों, दुकानों के एसी सड़क पर गरम हवा फेंक रहे हैं। ठंड की सिहरन चाहिए तो अंदर जाइए। गरमी में भी सूट-बूट पहन कर। पूरी दुनिया इसी ओर दौड़ रही है, सभ्य हो रही है। ऐसी स्थिति में कोई सरकार पहाड़ के निर्माण की सोच रही है, तो इसमें हैरत कीबात क्या है?

लेकिन पहाड़ क्या सिर्फ पत्थर का ढेर है, जो सरकार कंक्रीट से बना दे? पहाड़ भी प्रकृति का जीवंत तत्व है। सदियों में प्रकृति द्वारा रचा गया है। पहाड़ों ने अपने भीतर जाने क्या-क्या छिपा रखा है। औषधियों के पौधों से ले कर बॉक्साइट, एल्युमिनियम तक। इसी भंडार ने तो लोभी व्यापारियों को अपनी ओर खींचा है और वे इससे राक्षसी व्यवहार करते हैं। पहाड़ बादल को भी लुभाता है और बरसने के लिए मजबूर कर देता है। यही नहीं, पानी को तुरंत ढुलक नहीं जाने देता। अपने प्रेमपाश में बांध कर उसे सोख्ते की तरह सोख लेता है और फिर जब मनसून खत्म हो जाता है, वनस्पतियों को पानी की जरूरत होती है, जीवों को पानी की जरूरत होती है तब उसकी छाती संकुचित होती है और दूध की धारा की तरह पानी की धारा निकल पड़ती है। यही धार कल-कल, झर-झर करते हुए नदी, झरना और प्रपात बनाती है। नदियां हमारी प्यास को तृप्त करती हुई, हमारी सभ्यता को आकार देती हुई, हमें संस्कृत करती हुई आगे बढ़ती हैं, लेकिन हाय रे मनुष्य, तूने नदियों को कहां बहने दिया, उनके निर्झर निनाद पर ताला लगाने का काम तूने ही किया। तूने उसे अपने अहंकार में बांध दिया, बांध कर उसका सत्व निचोड़ लिया। जो बचा-खुचा जल था उसमें भी जहरीले स्राव को मिला कर गंदला कर दिया। गंदगी की गाद जमते-जमते नदियां कीचड़ में बदल गईं। उनका गला रूंध गया, उनका रास्ता रुक गया और अब नदियों को बचाने की हजारों परियोजनाएँ चल रही हैं, पच्चीसों साल से, लेकिन मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। दरअसल मर्ज पकड़ा ही नहीं जा रहा है, मर्ज हम पकड़ना ही नहीं चाहते। मर्ज पकड़ेंगे तो अपनी मौज-मस्ती, खाने की मानसिक भूख, हवस, विलासिता कम करने पर सोचना पड़ेगा। इन्हें भला कौन कम करेगा, आर्थिक विकास दर रुक जाएगी, विकास कम हो जाएगा, दुनिया की दौड़ में हम पीछे रह जाएंगे।

इसीलिए यह सब भी कम न हो, पहाड़ों के निर्माण, नदियों को बचाने की भी परियोजनाएं चलें, इसी की कवायद है। नदियों को बचाने के लिए दूसरी नदियों से पानी ला कर छोड़ने की परियोजना चल रही है, नहर से पानी ला कर नदी में छोड़ने की परियोजना चल रही है, पंपिंग सेट से पानी भरने के उपाय बताए जा रहे हैं। तालाबों-कुंडों को भी पंप से भरा जा रहा है। परियोजना दर परियोजना रुपया बह रहा है, पैसे का प्रवाह बढ़ रहा है, लेकिन पैसे से क्या पानी पैदा होगा? जब जंगल नहीं रहेंगे, पहाड़ नहीं रहेंगे तो नदी भी नहीं रहेगी, अंत में भू-जल भी नहीं रहेगा, कैसे चलेगा पंप कैनाल।

कबीर की उलटबांसियों का अर्थ पहले कभी खुला हो कि नहीं खुला हो, आज इन परियोजनाओं में खुल रहा है। आकाश से कंबल बरस रहा है और पानी भींगने से बचने के लिए कहीं दुबक रहा है। लोग आकाश की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं, तप्त धरती से वनस्पतियां रूठ गईं तो तप्त आकाश कंबंल का उत्पादन करने लगा। लोग पानी मांग रहे हैं, आकाश कंबल बरसा रहा है, लो बेचो और खाओ। सरकार को बढ़िया अवसर मिल गया है। वह ओरी का पानी बड़ेरी पर पहुँचाने के लिए परियोजनाओं के हाथ से, रुपए की टेक लगा कर पानी को ठेल रही है। पहाड़ का निर्माण करा रही है और नदी को नल से भरने का प्रयास कर रही है। आप कहेंगे, यह ओरी-बड़ेरी क्या होता है। कच्चे घरों को याद कीजिए। बीच में बांस की बड़ेरी होती थी और ढलवां नालीदार छाजन होता था। खपरैल से बने हुए नालीदार छाजन के सिरे को ही ओरी करते थे। पानी बरसता था तो इसी ओरी से पानी गिरता था। घर में कष्ट होने पर भी ओरी से गिरते हुए पानी की आवाज संगीत की तरह मन को खींचती थी -

ओरी मोरी चुई रात भर
नन्हें छत्रक दल के ऊपर
इंद्रदेव तेरा गोरा जल
मेरे द्वार विहँसता सुंदर

सोचता हूँ, ठाकुर प्रसाद सिंह के इस गीत का मर्म तब कैसे समझ में आएगा, जब न ओरी रहेगी, न छत्रक दल, न गोरा जल। धरती से रूठे हुए गोरे जल के बादल नहीं बरसेंगे तो भला कितने दिन नदियों को नल के पानी से भरा जा सकेगा। ओरी से पानी बड़ेरी पर भला कैसे पहुंचेगा। नहीं पहुंचेगा, तभी तो हमारा लोकमन इस कहावत को उलटबांसी कहता था। लेकिन इस समय तो हम हर उलटबांसी को सच करने की झूठी कवायद में लगे हैं। जिनका निर्माण प्रकृति ने सदियों में किया, उसका निर्माण वर्षों में करके अपने ही जीवन में समूचा उपभोग भी कर लेना चाहते हैं।

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