निबंध : गाय पर एक निबंध : राजकिशोर

राजकिशोर
याद नहीं बचपन में गाय पर निबंध कब लिखा था। जहिर है, प्राइमरी की किसी कक्षा में ही लिखा होगा। तब गाय  पर निबंध लिखना कितना आसान था। आज यह मुश्किल जान पड़ता है। क्योंकि, गाय के साथ राजनीति जुड़ गई है। जब राजनीति नहीं जुड़ी थी, तब गाय एक सीधा-सादा जीव थी। अब वह एक राजनीतिक जीव है। इतनी राजनीतिक कि उसे पशु कहते हुए डर लगता है।

कहना न होगा कि यह राजनीति भावनाओं से जुड़ी हुई है। लेकिन इसीलिए गाय पर लिखना आसान है। मामला वैज्ञानिक होता, तो इस पर विचार करना कठिन था। क्योंकि, विज्ञान तथ्यों पर आधारित होता है, वहाँ भावनाएँ नहीं, तथ्य निर्णय करते हैं। भावनाओं में तथ्यों से ज्यादा बल होता है, पर उनकी छानबीन संभव है और ऐसे निष्कर्षों तक पहुंचना आसान है जिन्हें तर्क-सम्मत कहा जा सकता है और जिन्हें सभी एक जैसी वैधता के साथ अपना सकते हैं।

एक समय था जब गाय के साथ धार्मिक भावनाएँ नहीं जुड़ी थीं जैसा आज है। इतिहासकार बताते हैं कि वैदिक काल में गाय और बछड़े का मांस खाया जाता था। यदि यह सही है, तब भी उनकी मान्यता में कोई फर्क नहीं पड़ता जो मानते हैं कि गाय ही क्यों, किसी भी जीव का मांस नहीं खाना चाहिए। वैदिक काल की संस्कृति भोगवादी संस्कृति थी। आर्य जीवन का भरपूर आनंद लेने वाले और मरने-मारने वाले आदमी थे। हिंसा उनके लिए वर्जित नहीं थी। लेकिन वे हमारे सब से पुराने पूर्वज थे, सिर्फ इसलिए हमारे आदर्श नहीं हो सकते। सच तो यह है कि मानव आदर्शों का संबंध किसी भी खास देश-काल से नहीं हो सकता। आदर्श वह है जो पूरे मानव इतिहास से छन कर आता है और जिसे हमारी बुद्धि स्वीकार करती हो। उपनिषदों का समय कम मूल्यवान नहीं है जब चिंतकों की संवेदना ज्यादा गहरी और व्यापक थी।

गाय के साथ धार्मिक संवेदना कब जुड़ी, यह तय करना कठिन है। लेकिन यह सच है कि मामला सैकड़ों वर्षों का है। यह बात मुस्लिम शासकों को भी पता थी, इसलिए उनमें से कई ने गाय मारने पर प्रतिबंध लगा रखा था। उन्हें खुद गाय का मांस खाने पर आपत्ति नहीं होती, क्योंकि उनके धार्मिक संस्कार इसके लिए उन्हें मना नहीं करते थे, पर वे जानते थे कि उन्हें एक ऐसे समाज पर शासन करना है जिसका अधिसंख्य गाय को माता मानता है और उसकी पूजा करता है। मेरा खयाल है, यही भावना उन सभी मुसलमानों की होगी जो जानते हैं कि अच्छा पड़ोसी होना क्या होता है।

लेकिन लोकतंत्र में कानून की सीमा होती है। आप कानून बना कर सभी को सभ्य नहीं बना सकते। इसलिए सभ्य से सभ्य शासन में भी जेलें होती हैं। लोकतंत्र में तय करना होता है कि किन चीजों पर कानून बनाया जा सकता है और किन चीजों पर नहीं। जैसे ब्राउन शुगर के सेवन पर रोक लगाई जा सकती है, पर धर्मांतरण को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। इसी तरह, कानून बना कर सभी को शाकाहारी नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए नैतिक प्रभाव की जरूरत होगी। हिंदू सैकड़ों साल से आम तौर पर शाकाहारी रहे हैं, तो इसके पीछे पता नहीं कितने ऋषियों-मुनियों  का नैतिक दबाव रहा होगा। आज यह दबाव नहीं है, इसलिए बहुत-से शाकाहारी परिवारों के लड़के भी मांस खाने लगे हैं।

कौन कहता है कि मांसाहार बनाम शाकाहार का प्रश्न नैतिक प्रश्न नहीं है। फिर तो हमें यह भी मंजूर करना होगा कि हिंसा का प्रश्न भी नैतिक प्रश्न नहीं है। एक जमाना था जब यह नैतिक प्रश्न नहीं रहा होगा। तब मजबूरी यह थी कि जीवित रहने के लिए क्या खाएँ – फल-कंद पूरे नहीं पड़ते थे। कबीलों के बीच लड़ाइयों में दो ही विकल्प हो सकते थे – मारो नहीं तो मार दिए जाओगे। सभ्यता के उस आदिकाल में कोई शाकाहार पर विचार ही नहीं कर सकता था। यह विचार तब आया जब सभ्यता कई कदम आगे बढ़ चुकी थी। महाभारत में कहा गया -  अहिंसा परमो धर्मः।

अहिंसा आज भी परम धर्म है, इसका आविष्कार हमारे युग में गांधी जी ने किया था। उनकी स्वीकारोक्ति है कि सत्य की अपेक्षा अहिंसा मेरे स्वभाव के ज्यादा निकट रही है। अहिंसा  की तलाश में ही वे सत्य के पास गए। मेरी पीढ़ी के लिए सत्य अहिंसा से बड़ा मूल्य है। सत्य के लिए अगर हिंसा होती है तो हो। लेकिन यह भी सच है कि जो सत्य हिंसा की ओर ले जाए, उससे दुनिया का काम नहीं चल सकता। दुनिया सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व पर निर्भर है। इसीलिए जिनके लिए गाय का मांस खाना वर्जित नहीं है, वे उनका लिहाज करते हैं जिनके लिए गाय का मांस खाना पाप है। लेकिन जो यह लिहाज करता न पाया जाए, तो उसके साथ कैसा सलूक किया जाना चाहिए? देश के किसी भी राज्य में गोमांस खाने की सजा मृत्युदंड नहीं है।

मैं यह तर्क नहीं दूंगा कि गाय और आदमी में आदमी का जीवन ज्यादा मूल्यवान है। जीवन जीवन है। और, इसी तर्क से गाय खाना ठीक नहीं है, तो बकता, भेड़ या सांप खाना भी ठीक नहीं है। जब हिंदू चित्त उदार होगा, तो वह सिर्फ एक पेड़ या एक जीव में पवित्रता नहीं देखेगा – अस्तित्व मात्र को पवित्र समझेगा। सिर्फ गाय को नहीं बचाया जा सकता। बचाना है तो सभी को बचाना होगा। आज का आदमी यही भाषा समझता है। इस भाषा में जो बोलेगा, वह हिंदू धर्म के एक बुनियादी मूल्य को प्रस्थापित करेगा। इस संदर्भ में यह तर्क बेमतलब है कि हिंदू धर्म के कई संस्करण हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित हैं। जब तर्क और मूल्य का प्रश्न आता है, तब प्रचलन दब जाता है। प्रचलन एक आदत है जिसे बदला जा सकता है। तर्क दुनिया में सभी जगह एक ही हो सकता है – देश और क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग नहीं। कोई कह सकता है कि मैं अतार्किक जीवन जीना चाहता हूँ। यह कोई अनहोनी बात नहीं है। अधिकांश लोग अतार्किक जीवन जीते हैं। कहना यह है कि आप अतार्किक जीवन किसी और पर थोप नहीं सकते।

गाय पर कोई भी निबंध तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक उसके दूध पर चर्चा न की जाए। बचपन से हमें पढ़ाया जाता है कि गाय दूध देती है, जैसे यह कि सूर्य प्रकाश देता है। सूर्य प्रकाश नहीं देता, यह उसकी जिम्मेदारी भी नहीं है। उसके उदित होने से प्रकाश फैलता है तो फैले - इसके लिए वह कहीं से भी जिम्मेदार नहीं है न इसके लिए उसे धन्यवाद देने की जरूरत है। वास्तव में हम जानते हैं कि सूर्य का उदित और अस्त होना भी माया है। सूर्य कभी अस्त नहीं होता, यह पृथ्वी की दैनिक गति है जिसके कारण वह अस्त होता हुआ दिखाई देता है। हम कहते हैं, शाम होते ही सूर्य अस्त हो जाता है। यह भी भाषा का छल है। शाम होते ही सूर्य अस्त नहीं होता, उसके अस्त होने से शाम होती है। पहले शाम, फिर रात। इसी तरह, गाय दूध देती नहीं है, बल्कि गाय का दूध हम उससे जबरन ले लेते हैं। यह गाय की उदारता नहीं, हमारी नृशंसता है।

गाय का दूध हमारे लिए नहीं होता, उसके बच्चे के लिए होता है, जैसे मानव स्त्री का दूध उसके अपने बच्चे के लिए होता है। किसी भी महिला प्राणी का दूध दूसरी महिला प्राणी के बच्चों के लिए नहीं होता। यह मनुष्य है जो हजारों वर्षों से गाय का दूध उसके बच्चों से छीन कर पीता रहा है और अपने परिवार को पिलाता रहा है। जिस पहले आदमी ने गाय का दूध दुहना चाहा होगा, उसकी मुसीबतों का अनुमान किया जा सकता है। गाय ने खूब राजी-खुशी से अपने को दुहवाना पसंद नहीं किया होगा। आज भी ग्वाला दुहते समय गाय के पिछले दोनों पैर बाँध देता है, ताकि वह बाधा न डाल सके। किसी भी गाय को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह प्रसन्नतापूर्वक दूध दे। गायों का जन्म आदमी को दूध पिलाने के लिए नहीं हुआ है। वे वैसे ही स्वतंत्र जीव हैंजैसे हम।

यह सत्य आने में बहुत समय लगा होगा कि दूध पीना मनुष्य के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि नुकसानदेह है। इस स्थापना के बहुत-से वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किए गए हैं। कुछ वर्षों से यह आंदोलन-सा चल रहा है कि दूध पीना छोड़ो – यह भी ‘एनिमल प्रोडक्ट’ है। यह समझ लेने के बाद गांधी जी ने अपने कई साथियों के साथ दूध पीना छोड़ दिया था। उसके बाद एक बार जब वे गंभीर रूप से बीमार पड़े, तब डॉक्टरों ने उन्हें दूध पीने की सलाह दी। यह गांधी जी के लिए नैतिक संकट का समय था। तब उन्हें और शिद्दत से महसूस हुआ कि जीवन ही जीवन का आहार है।

यह जानते वे पहले से ही थे। उन्होंने बार-बार चेताया है कि हिंसा किए बिना हम जी ही नहीं सकते। जीने में ही हिंसा है। लेकिन कितनी हिंसा? अधिकतम हिंसा या न्यूनतम हिंसा? अंधाधुंध हिंसा असभ्यता का लक्षण है। हिंसा पर विचार करते हुए गांधी जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दूध पीना अनिवार्य ही हो जाए, तो हमें अपने से बड़े डीलडौल के पशु का दूध नहीं पाना चाहिए – वह हमारी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। बकरी का कद हम से मिलता-जुलता है, इसलिए आदमी के लिए बकरी का दूध ज्यादा मुफीद है। गांधी जी बकरी का दूध पीते थे, इस पर हँसने वालों की संख्या को गिन पाना संभव नहीं है। लेकिन हमें इस पर विचार करना चाहिए कि यह उनका शौक या सनक नहीं थी। इसके पीछे एक सुचिंतित तर्क था। आदमी का शरीर और चित्त उसी के अनुसार बनता है जो वह खाता या पीता है। यह प्रचार दुष्टतापूर्ण  है कि उनकी बकरी को काजू-बादाम खिलाया जाता था। हमने ठीक ही पढ़ा है – ‘गांधी बाबा की तू बकरी, पत्ते ही तो खाती है।’

गाय से प्रेम सिर्फ सांप्रदायिक प्रेम होगा, तब गाय नहीं बचेगी। उसे एक नहीं तो दूसरा खाएगा। नहीं तो वह अन्य प्रकार से मरेगी।  दूध न देने वाली बूढ़ी गायों का क्या होता है? वे बूचड़खाने में जाती हैं या गोमांस के व्यापारियों के पास। हमारे देश से गोमांस का निर्यात बढ़ता जा रहा है और यह कारोबार ज्यादातर हिंदुओं के पास है। लेकिन अब सब से बड़ी समस्या है, नर-गायों का क्या करें। गांवों में अब बैल दिखाई नहीं देते। उनका काम मशीनें करने लगी हैं। इसलिए गाय के जब बेटी होती है, तब उसे रख लेते हैं, पर बेटा होता है, तो उसे अपनी चिंता करने के लिए खुला छोड़ देते हैं। इन्हैं कैसी मृत्यु प्राप्त होती होगी, इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल नहीं है। मनुष्यों में लैंगिक संतुलन जितना बिगड़ा हुआ है, उससे ज्यादा लैंगिक असंतुलन गायों की दुनिया में है। इसके नतीजे अच्छे नहीं हो सकते।

गाय गांधी जी को भी प्यारी थी, पर वे इसे सामान्य पशु-प्रेम के रूप में लेते थे। गोरक्षा का हाल उन्होंने देखा था, तो वे गोरक्षा के बजाय गोसेवा की बात करने लगे। वास्तव में गोसेवक ही गोरक्षक हो सकता है। बाकी सब तो राजनीतिक कार्रवाई है जिसका संबंध गाय से नहीं, एक विशेष समुदाय से है।  गांधी जी का कहना था कि गाय मेरे लिए समस्त पशु जगत की प्रतिनिधि है। इसीलिए वे सिर्फ गाय से नहीं, सभी जीवों से प्रेम करते थे। यहाँ तक कि साँपों को भी वे नहीं मारते थे। वर्धा में, जहाँ उनका सेवाग्राम आश्रम था, साँप बहुत हैं। आजकल उन्हें देखते ही मार दिया जाता है। गांघी जी मारते नहीं थे, सांपों का अध्ययन करते थे। इसके आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश सांप विषहीन होते हैं। गो प्रेम हमें अहिंसक बनाता है तो उसका स्वागत है। वह हमें और ज्यादा हिंसक बनाता है, तो उस पर पुनर्विचार की जरूरत है।

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