कस्बों का संकट : मदन कश्यप

मदन कश्यप
आजादी की रोशनी सारंडा और अबूझमाड़ के जगलों तक नहीं पहुँच पाती है तो दूसरी तरफ, यह कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में रोशनी कम फैलाती है, तपिश ज्यादा देती है। वर्गीय और जातीय भिन्नता के आधार पर आजादी के अलग-अलग मायने तो हैं ही। लेकिन, इस तथ्य की ओर लोगों का ध्यान प्रायः नही गया है कि स्वतंत्रता के बाद बदली हुई व्यवस्था में कस्बों का जीवन सब से ज्यादा संकटगस्त हो गया है। जो कस्बे अपने आंतरिक संसाधनों अथवा किन्हीं राजनीतिक समीकरणों से मिले लाभ के चलते शहर के रूप में विकसित हो गए, वे तो अपनी नई पहचान के साथ बच गए, लेकिन जिनका स्वरूप नहीं बदला है उनका रूप धीरे-धीरे विकृत होता जा रहा है। ऐसे कस्बों की अंतिम नियति है, पलायन।

पिछले दिनों कैराना की पलायन-कथा के सामने आने के बाद इस संकट की ओर ध्यान गया। हालाँकि दुष्ट राजनीति ने कैराना के संकट को एक सांप्रदायिक संकट के रूप मे पेश करने और उसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश की, लेकिन विराट झूठ को भेद कर जो तथ्य सामने आए उनसे यह तो जाहिर हो ही गया कि कस्बों में सांस्कृतिक अस्मिता ही नहीं बल्कि, जीवन भी खतरे में है। उनकी सामाजिक सरंचना गाँव जैसी नहीं होती, जिसमें अपने आप को बचाने की आंतरिक ताकत होती है। दूसरी तरफ, उन्हें वे सुविधाएँ  प्राप्त नहीं होतीं जो शहरों को होती  हैं और जिनके होने पर ही किसी शहर का होना संभव होता है।   

आजादी के बाद ग्रामीण विकास के साथ ही शहरों के लिए तो अलग-अलग योजनाएँ बनीं, लेकिन कस्बों के विकास पर अलग से ध्यान नहीं दिया गया। बस यह अपेक्षा की गई कि धीरे-धीरे वे शहर में बदल जाएँगे।  कुछ बदले भी, लेकिन जो पिछड़ गए उनकी नियति कैराना या मोकामा जैसी हो गई।           

कैराना जैसा ही बिहार में एक कस्बा है मोकामा, वहाँ भी पिछले कोई तीस वर्षों से पलायन, विशेष रूप से व्यापारियों  का,  जारी  है।  मोकामा छोड़ने वालों की सूची  बनाई जाए,तो वह कैराना से कहीं बड़ी होगी। बात केवल मोकामा या कैराना की नहीं है, शोध किया जाए तो देश में समृद्ध किसानों के गाँवों के आसपास ऐसे सौ से अधिक कस्बे होंगे, जहाँ तीस-चालीस साल पहले  काफी  रौनक  थी,  लेकिन  अब  वहाँ जीवन  संकट में  है। दरअसल, जिन कस्बों में बदलते समय के साथ उद्योग-धंधों का विकास नहीं हो सका और जो शहर में तब्दील नहीं हो सके, बस यथास्थिति को बचाने के प्रयत्न भर करते रहे, उन सब की हालत वही है जो कैराना या मोकामा की है। कस्बों के संकट के मोटे तौर पर तीन कारण दिखाई दे रहे हैं, जिनके माध्यम से कृषि संस्कृति के संकट को भी समझा जा सकता है। पहला यह कि ऐसे सभी कस्बे मुख्य रूप से आसपास के ग्रामीणों की जरूरतों को पूरा करते हैं और इनकी अर्थव्यवस्था धनी किसानों की क्रयशक्ति पर आधारित होती है। जबकि  पिछले तीस-चालीस वर्षों में औद्योगिक उत्पादों की तुलना में कृषि उत्पादों की कीमतें काफी कम बढ़ी हैं और किसानों का मुनाफा कम हुआ है, जिसका सीधा असर उनकी क्रयशक्ति पर पड़ा है (जमाखोरी के कारण जो महँगाई बढ़ती है उसका लाभ किसानों को तो नहीं ही मिलता है)। उनके अलावा धनी किसानों की जीवनशैली भी बदली है और अब वे अपनी जरूरतों के लिए आसपास या थोड़े दूरदराज के छोटे-बड़े शहरों की ओर उन्मुख हुए हैं। इन सब का असर कस्बों के व्यापार पर इतना गहरा पड़ा है कि उनका अर्थगणित ही गड़बड़ा गया है। कस्बों में रोजी-रोटी के गंभीर संकट पैदा हो गए हैं।

कस्बे का जीवन
दूसरा बड़ा संकट है रँगदारी। यह कोई नई परिघटना नहीं है। जब से वाणिज्य-व्यापार शुरू हुआ, तभी से रँगदारी वसूली भी शुरू हो गई, भले ही अलग-अलग कालखंडों में उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा हो। बनियों को इसमें कोई उज्र भी नहीं होता, बशर्तें उनकी लूट अबाध गति से चल रही हो और वसूली जाने वाली कुल रँगदारियाँ उनके मुनाफे के कुछ प्रतिशत से अधिक नहीं हो। लेकिन जब व्यापार में आई मंदी के कारण रँगदारी देना भारी पड़ने लगता है और दूसरी ओर,  महानगरों-नगरों की अपेक्षा कमजोर या शिथिल  कानून-व्यवस्था के चलते वसूली और बढ़ती चली जाती है, तब व्यवसायी वर्ग के सामने पलायन की परिस्थिति पैदा हो जाती है।

कस्बों  से  पलायन  का  तीसरा  उल्लेखनीय  कारण  है,  बदलती  हुई  जीवनशैली और    बढ़ती आकांक्षाएँ, जिन्हें पूरा करने में पुरानी शैली के जीवन और जरूरतों पर आधारित कस्बा सक्षम नहीं होता। तब साधन संपन्न लोग बच्चों की अच्छी पढ़ाई, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा और नए ढंग के बाजारों की उपलब्धता को नजर में रहते हुए आसपास के बड़े शहरों में शिफ्ट हो जाते हैं। वे पहले परिवार को वहाँ स्थानांतरित करते हैं, फिर धीरे-धीरे अपना व्यापार समेट लेते हैं और नए शहर में उसे जमा लेते हैं अथवा कोई अन्य व्यापार शुरू कर देते हैं।               

व्यापारियों के पलायन के ये तीन प्रमुख कारण हैं, जो रोजी-रोटी के लिए मजदूरों के पलायन से अलग हैं। इस दृष्टि से मोकामा से कैराना तक का अध्ययन किया जाए, तो संकटों को समझ कर कस्बों को बचाने के उपक्रम किए जा सकते हैं। लेकिन सत्तालोलुप राजनीतिक दलों को इन बुनियादी समस्याओं से कुछ लेना-देना नहीं है।

लेकिन बात इतनी ही नहीं है। वैसे कस्बे भी संकटग्रस्त हैं, जहाँ पलायन नहीं हुआ है और जो सौभाग्य से अभी तक अपराधियों के शिकंजे में नहीं आए हैं। मेरे गाँव के पास एक कस्बा है, लालगंज। यह ऐतिहासिक नगर है क्योंकि बुद्ध काल  में  इसके एक  विकसित  व्यापारिक  केंद्र  होने  की जानकारी मिलती है, तब इसका नाम नादियग्राम था। सत्ररहवीं सदी में यूरोपीय व्यापारियों ने यहाँ शोरे की फैक्टरियाँ लगाई थीं। कोलकाता को बसाने वाला जॉब चार्नक पहले यहीं की एक शोरा फैक्टरी का प्रबंधक था, उसकी सुविख्यात प्रेमिका भी शायद यहीं  की  थीं, लेकिन आज लगभग तीस हजार की आबादी वाला यह एक कस्बा है और इसके सारे उद्योग-धंधे नष्ट हो चुके हैं। है। लकड़ी का नक्काशीदार पलंग और उपस्कर इसका आखिरी उद्योग था, जो टिक प्लाई और सनमाइका के बढ़ते प्रचलन के साथ ही समाप्त हो गया।

यहाँ कैराना या मोकामा जैसा पलायन नहीं है। किन्हीं विडंबनापूर्ण परिस्थितियों के चलते उसने न केवल गाँव की संस्कृति अपना ली है बल्कि अपना मनोमिजाज भी गँवई लोगों जैसा बना लिया है। ढाई हजार वर्षों के लंबे इतिहास में पहले भी यह कस्बा नगर से गाँव में तब्दील हो चुका है और परिस्थिति के बदलाव के साथ फिर से एक व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर चुका हैं। लेकिन यह तब की बातें थीं जब व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं थी और किसी शहर का होना या न होना बहुत हद तक उस समय की राजसत्ता पर निर्भर था। यह कस्बा केवल  व्यापारिक  गतिविधियों के संकुचन ही नहीं, लोकतांत्रिक गतिशीलता और आजादी से भी महरूम है, केवल भौतिक स्तर पर नहीं, मानसिक स्तर पर भी। यहाँ का ‘शारदा सदन’ पुस्तकालय कभी उत्तर बिहार का सब से बड़ा पुस्तकालय था और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी। अब केवल उसका अस्तित्व बचा है। वह कस्बे की मनहूसियत, उदासी और असहायता का एक रूपक बन गया है। कैराना और मोकामा से भिन्न, मृत्यु की ओर बढ़ रहे कस्बे का यह तीसरा रूप है जिसे अपनी बीमारी का ठीक से पता भी नहीं है।

दरअसल, आजादी के इतने वर्षों के बाद भी न तो कस्बों के सामाजिक और नागरिक जीवन और उसकी आंतरिक और बाह्य संरचना को समझने का सरकारी स्तर पर कोई उपक्रम किया गया, न ही वहाँ की परिस्थितियों के अनुरूप  विकास  की योजनाएँ  बनाई  गईं।  सरकार को छोड़िए, रचनाकारों का ध्यान भी उन पर नहीं गया है। कम से कम हिंदी साहित्य में तो इस तरह के जीवन पर बहुत कम लिखा गया है। हमारे लेखन में गाँव हैं, महानगर हैं, और कुछ छोटे-बड़े शहर भी। लेकिन, कस्बे के जीवन पर कुछ ऐसा शायद नहीं लिखा गया है जो उल्लेखनीय हो और तत्काल जिसकी याद आए। इतिहास में जो उपेक्षित और अनुल्लिखित रह जाता है, साहित्य उसे दर्ज करता है। पर जो साहित्य में भी उपेक्षित रह जाए, उसे भला कैसे और किस रूप में बचाया जा सकता है? इस सवाल का उत्तर अभी आसान नहीं है, लेकिन इसके उत्तर की तलाश ही साहित्य का नया एजेंडा होना चाहिए।

आजादी  का  गहरा  रिश्ता लोकतंत्र  से  है। अन्य किसी  भी प्रकार की  व्यवस्था में सार्वजनिक आजादी की कल्पना नहीं की जा सकती। वहाँ आजादी शासन करने वाले समूह, वर्ग, कबीले या संप्रदाय से नियंत्रित होती है और उसके ही हित में गढ़ी गई नैतिकता से संचालित होती है। केवल लोकतंत्र में ही किसी देश या राष्ट्र की सांस्कृतिक बहुलता और सामुदायिक भिन्नता की रक्षा करते हुए समानता की एक आधुनिक अवधारणा निहित होती हैं। इस समानता की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता का ढाँचा खड़ा हो सकता है। अंबेडकर ने कहीं लिखा है कि ‘समानता एक कल्पना हो सकती है, फिर भी, व्यवस्था के सिद्धांत के रूप में इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।’ इस सिद्धांत की स्वीकृति के बगैर न तो सच्चा लोकतंत्र आएगा और न ही सच्ची आजादी मिलेगी। सब से बढ़ कर इसके बगैर सच्चा लोकतांत्रिक साहित्य भी नहीं रचा जाएगा।

दुर्भाग्य से कस्बों का लोकतंत्र न तो नगरों और महानगरों जैसा गतिविधिपूर्ण बन सका है, न ही उसका स्वरूप गाँव जैसा हो सका है। हर कस्बे में और कुछ चाहे न हो, एक थाना जरूर होता है। इस प्रकार, वह लगभग पूरी तरह एक थानेदार के अधीन होता है। वह नगर नहीं है कि जहाँ  थाने से अलग और ऊपर भी व्यवस्था के कई तंत्र होते हैं, न ही वह गाँव है जो प्रायः थानेदार की नजरों से दूर अपनी स्वायत्त व्यवस्था में जी रहा होता है। कस्बे पर     तो हमेशा थानेदार की नजर रहती है। अपराधरियों को भी वही नियंत्रित करता है और अपराध की दिशा भी वही निर्धारित करता है। कस्बाई पत्राकारों को भी खबरें थानेदार से ही लेनी पड़ती हैं। आधा कस्बा बचने के लिए थानेदार से दूर भागता है, तो आधा उसकी कृपा पाने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ता है। इस प्रकार, कस्बों में लोकतंत्र और आजादी थानेदारों के हवाले है।               

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