आवरण पृष्ठ - सितंबर 2016


रविवार डाइजेस्ट का सितंबर 2016 ब्लॉग संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत है।

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अपनी बात : डॉ सुभाष खंडेलवाल


मेरा समय : विजातीय से भय : शंभुनाथ

शंभुनाथ
दूसरी जातीयताओं, नस्लों, मजहबों या दूसरे देश के लोगों को अपने बीच देख कर बहुसंख्यक समुदाय के लोग कई बार असहज हो उठते हैं। उनमें पूर्वाग्रहयुक्त आत्मगर्व के साथ एक भय भी जागता है। भिन्नता का बोध इतना तीव्र होता है कि सिर्फ भय नहीं पैदा होता, असुरक्षाबोध भी होने लगता है। इससे विजातीय के प्रति घृणा और हिंसा का विस्फोट होते भी देखा गया है। आर्थिक सुधारों के कारण बढ़ी बेरोजगारी और हाल के आतंकवादी हमलों ने भारत ही नहीं, अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों में विजातीय-भय बढ़ाया है।

श्रीलंका में सिंहली-तमिल तनाव देखा जा सकता है। असम में बांग्लादेशियों से विजातीय-भय है। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में हिंदी भाषियों की बढ़ती संख्या देख कर घृणा और हिंसा के दृश्य मिलते रहे हैं। बंगलुरु में अफ्रीकी विद्यार्थियों के प्रति हिंसा देखी गई। दिल्ली में उत्तर-पूर्व के लोगों को देख कर नौजवान ‘चीनी आला रे’ गाते देखे गए हैं। कटूक्तियां सत्ता-प्रदर्शन होती हैं।

भारत में आम तौर पर मुसलमान हिंदुओं के इलाके में बसना नहीं चाहते, हिंदू मुसलमानों के इलाके में फ्लैट नहीं लेते। ये विजातीय-भय के ही रूप हैं। ‘भिन्न’ से भय और असुरक्षाबोध में उसी तरह वृद्धि हुई है जैसे लोभ में और भोग में। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, इराक और अन्य एशियाई देशों में सदियों से साथ-साथ रहती आई विविध जातियों में इधर अचानक विजातीय-भय बढ़ा है, जैसे कुछ लोग विजातीय सफायाकरण के बाद अब अपने लिए एक शुद्ध इलाका चाहते हों। जैसे कौवा कौवों और तोता तोते के साथ ही रहना चाहे।

अमेरिका में नस्लवादी हिंसा बढ़ी है। 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद वहां विजातीय-भय का पहला शिकार कोई मुसलमान नहीं हुआ, एक सिख हुआ जो पगड़ी पहने हुआ था। इंग्लैंड में कई पीढ़ियों से रहते आए 35 लाख से अधिक भारतीय आज विजातीय-भय के शिकार हैं। वहां दूसरे देशों के यूरोपियनों को भी बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है। डैनिश डेनमार्क में बसे जर्मनों को इसी निगाह से देखते हैं। यूरोपीय संघ के देशों -- हंगरी, आस्ट्रिया, जर्मनी, स्वीडेन - की सीमाएं बंद होने लगी हैं। कांटे की दीवारें खड़ी की जा रही हैं, शरणार्थी न घुस जाएं।

सोलहवीं सदी से यूरोपीय देश के लोग दुनिया के दूसरे देशों में जा कर अपना साम्राज्य कायम करते और बसते रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय देशों में एशियाई देशों के डॉक्टरों, हुनरमंदों और आम श्रमजीवियों का जा कर बसना शुरू  हुआ। कइयों ने यूरोपीय देशों की ही नहीं, अमेरिका और आस्ट्रेलिया तक जा कर वहां की नागरिकता हासिल कर ली। पंजाब और केरल से ज्यादा लोग गए। अब आर्थिक संकट जैसे-जैसे गहरा रहा है, वे विजातीय के रूप में देखे जा रहे हैं।

दुनिया का बाजार जरूर मुक्त हुआ है, पर लोगों का मन अंध-राष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों से जकड़ता गया है। 2005 में ‘यूरोपीयन कमीशन अगेंस्ट रेसिज्म एंड इनटालरेंस’ ने सांस्कृतिक नस्लवाद के खतरे से आगाह करते हुए कहा है कि नस्ल तेज गति से संस्कृति की जगह लेती जा रही है।

एशियाई और पश्चिमी देशों में इधर जो फासीवादी गुंडागर्दी फैली है उसके मूल में विजातीय से भय है जो हिंसक स्तर तक बढ़ गया है। वैश्वीकरण ने व्यापारिक और शैक्षिक स्तर पर सामाजिक गतिशीलता बढ़ा दी हो, सांस्कृतिक सहिष्णुता का ग्राफ तेजी से नीचे की ओर गिरा है। वित्तीय पूंजीवाद सार्वभौम हुआ हो, श्रम का भूमंडलीकरण संकट में है। समस्या अब इस रूप में पेश की जा रही है-- सुयोग बनाम वंचना। ‘बाहर’ के श्रमजीवियों को मिला सुयोग स्थानीय के लिए ‘वंचना’ है। अब सुअवसर देने के मामले में जातीयता और जाति पहले देखी जाती है। लंबे समय तक सुधार आंदोलनों से गुजरे, राष्ट्रीय सम्मिश्रण के उन्नत स्तर पर पहुंचे और उदारवादी माने जाने वाले राज्यों और देशों में भी जब विजातीय-भय की दीवारें उठती हैं और साथ उठने-बैठने वाले अचानक विजातीय की तरह देखे जाने लगते हैं, लग सकता है कि वैश्वीकरण ने यह कैसा उपहार दिया है।

विजातीय से भय कितना वीभत्स रूप लेता है, इस पर भीष्म साहनी की एक अच्छी कहानी "वाङ्चू" है। इसमें राजनीति से बेखबर एक सरल चीनी बौद्ध भिक्षु को भारत-चीन युद्ध (1962) के समय वाराणसी पुलिस स्टेशन में हर हफ्ते हाजिरी देनी पड़ती थी। उस पर यात्राओं में लोगों द्वारा दबाव बनाया जाता था, ‘कहो कि तुम्हारे देश के लोगों ने विश्वासघात किया है, नहीं तो हमारे देश से निकल जाओ...।‘ अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस आदि देशों में मुसलमानों के संदर्भ में विजातीय-भय कुछ इसी तरह व्यक्त हुआ है और इस तरह भी,  ‘तुम बिल्कुल हमलोगों जैसे हो जाओ।‘ पश्चिमी लोग कोकोनाट जेनरेशन चाहते हैं -- लोग बाहर से भले भूरे दिखें, चमड़ी के भीतर गोरे हो जाएं।

कुछ पश्चिमी विचारकों, जैसे हांस मैग्नुस इन्जेंसबर्जर की धारणा है, ‘जेनोफोबिया नृवैज्ञानिक तत्वों के रूप में सभी प्राचीन समाजों में रहा है।‘ क्या भारत के बारे में कहा जा सकता है कि एलियन, अजनबी या विजातीय लोगों के प्रति कभी भय और अस्वीकार किसी युग में था? आर्य-द्रविड़ अंतर्मिश्रण ही नहीं घटित हुआ, यवन, हूण, शक, पठान, मुगल, अंग्रेज भी भारतीय समाज का सहज अंग बने। दक्षिण के शंकर और रामानंद उत्तर भारत में अजनबी या विजातीय न थे। सूफी कभी विजातीय नहीं दिखे। जहांगीर 1615 में अंग्रेजों को व्यापार की अनुमति नहीं देता, यदि विजातीय से भय होता।

भारतीय समाज में अंतर्द्वंद्वों के बावजूद सैकड़ों साल से खुलापन रहा है, साझा जीवन रहा है, विश्वात्मबोध रहा है। सांस्कृतिक अंतर्उवरण एक महान वास्तविकता रही है। फिर भी अब दूध-सा सब कुछ फटता दिख रहा है, क्योंकि सच्ची राजनीतिक गरमाहट नहीं है। क्या विजातीय से भय एक राजनीतिक निर्मिति है, राजनीतिक खाद है और क्या यह वैश्वीकरण का झुलसा हुआ चेहरा है? विगत कुछ दशकों से काल्पनिक भिन्नता के आधार पर फैलाया जा रहा यह भय एक ऐसा सत्ता विमर्श है जो जनता की ताकत और उसकी संस्कृति को कमजोर करता है। यह भय विश्व मन बनाने की जगह हरेक तरफ सिर्फ खून की दीवारें खड़ी करता है।

मध्य प्रदेश : विकास के नाम पर अविकास : नीलेश द्विवेदी

यह 2005 की बात है। शिवराज सिंह चौहान उसी साल मध्य प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बनाए गए थे। उनके आते ही राज्य में मुख्यमंत्री बदले जाने की सुगबुगाहट भी शुरू हो चुकी थी। तब के मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर की तुलना में राज्य सरकार का नेतृत्व करने के लिए, पार्टी के भीतर और बाहर शिवराज को ज्यादा सशक्त दावेदार समझा जाने लगा था। राष्ट्रीय स्तर पर उनके राजनीतिक संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी का पार्टी पर प्रभुत्व पुरअसर तरीके से कायम था, जबकि उनकी प्रतिद्वंद्वी और तीन चौथाई बहुमत से भाजपा को मध्य प्रदेश की सत्ता में लाने वाली पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती का प्रभाव राज्य और पार्टी में कम हो रहा था।

इसी बीच, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के एक लेख ने शिवराज से जुड़ी अटकलबाजी को यकीनी रुख दे दिया था। प्रदेश के प्रमुख अखबारों में छपे इस लेख में पटवा ने अपने राजनीतिक शागिर्द शिवराज सिंह चौहान को राज्य की सत्ता संभालने की दिशा दिखाई थी। ठीक उसी तरह, जैसे पृथ्वीराज चौहान को उनके राजकवि चंद बरदाई ने मुहम्मद गौरी को मारने के लिए दिशा और दूरी का भान कराया था – ‘चार हाथ चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान। ता ऊपर सुल्तान है, चूको मत चौहान।’ दिलचस्प बात है कि पटवा ने भी अपने लेख में शिवराज को प्रेरित करते हुए लिखा था, ‘चूको मत चौहान।’

यकीन मानिए, उसके बाद शिवराज ने कोई चूक नहीं की। उसी साल यानी 2005 के नवंबर में उन्होंने भी लक्ष्य साध लिया और प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी ताजपोशी हो गई। वे इसके बाद भी नहीं चूके। जब, जहां, जिस तरह का भी मौका मिला, जनता को लुभाने वाली घोषणाओं पर घोषणाएं करते गए। इस तरह की तमाम योजनाएं भी शुरू कीं, जिनसे लोकलुभावन और समाज के हितैषी की उनकी छवि दिनों-दिन मजबूत होती चली गई। इसका असर यह हुआ कि 2008 और 2013 में लगातार उनकी सरकार ने सत्ता में वापसी की। मगर उनकी सरकार प्रदेश की जनता को कितना-कुछ वापस कर सकी? यह लाख टके का सवाल है, जिसका जवाब मध्य प्रदेश राज्य की मिलेनियम डेवलपमेंट गोल (सहस्राब्दि विकास लक्ष्य या एमडीजी) रिपोर्ट 2014-15 में मिलता है।

यूनीसेफ (यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड) के साथ मिलकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी ने इस रिपोर्ट को तैयार किया है। इसके मुताबिक, मानव विकास के अधिकांश सूचकांकों पर मध्य प्रदेश का प्रदर्शन बेहद खराब है। जैसे कि गरीबी का अनुपात पूरे देश का 21.92 फीसदी है तो मध्य प्रदेश का 31.65 फीसद। तीन साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चों की तादाद पूरे देश में 40.।4 फीसदी है तो मध्य प्रदेश में 57.9 फीसदी। बच्चों को जन्म देते वक्त महिलाओं की मौत के मामले में मधय प्रदेश देश का पांचवां सबसे खराब राज्य है। यहां हर एक लाख गर्भवती महिलाओं में से 221 को प्रसव के वक्त जान से हाथ धोना पड़ता है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 167 है। इसी तरह, मध्य प्रदेश देश का दूसरा ऐसा राज्य है, जहां जन्म के वक्त सबसे ज्यादा बच्चों की मौत होती है। प्रति हजार में यहां 54 नवजात दम तोड़ देते हैं, जबकि इस मामले में पूरे देश का औसत 40 है।
सामाजिक ढांचे पर खर्च के मामले में तो छत्तीसगढ़ (46%), राजस्थान (45%), बिहार (45%), ओडिशा (42%) और उत्त रप्रदेश (41%) जैसे राज्यों से भी मध्य प्रदेश पीछे है। मध्य प्रदेश सरकार ने 2012-13 में अपनी आमदनी का महज 39% ही सामाजिक ढांचे पर खर्च किया। यहां सामाजिक ढांचे का आशय शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि पर सरकार की ओर से किए गए खर्च से है। इस मामले में देश के 17 बड़े राज्यों में मध्य प्रदेश से नीचे सिर्फ गोवा (36.30%), पंजाब (35%) और केरल (34.89%) जैसे तीन राज्य ही हैं जिनका सामाजिक ढांचा मध्य प्रदेश की तुलना में पहले से ही बेहतर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, देश के आठ राज्यों को एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप (ईएजी) के तहत रखा गया है। यानी ऐसे राज्य जहां मानव विकास के सूचकांकों पर काफी करने की जरूरत है। इन राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश शामिल हैं।

पाकिस्तान और बांग्लादेश को छोड़ दें तो मध्य प्रदेश में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के किसी भी देश से ज्यादा आबादी रहती है। इसी आधार पर इन देशों से भी मध्य प्रदेश की तुलना की गई है और बताया गया है कि मानव विकास के 18 सूचकांकों के औसत के हिसाब से सार्क देशों में श्रीलंका सबसे बेहतर है, जबकि मध्य प्रदेश नीचे से दूसरे पायदान पर। उससे नीचे सिर्फ अफगानिस्तान है। गरीबों की कुल आबादी के मामले में मध्य प्रदेश निचले क्रम पर ही पाकिस्तान की बराबरी पर नजर आता है। यानी मध्य प्रदेश में पाकिस्तान के बराबर (2.28 करोड़) लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं।

सब को प्राथमिक शिक्षा दिलाने के लक्ष्य के हिसाब से मध्य प्रदेश का दर्जा श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान से भी नीचे है। मातृ एवं शिशु मृत्यु दर के मामले में भी ये चारों देश मध्य प्रदेश से बेहतर हैं, जबकि शिक्षा व रोजगार में लैंगिक भेदभाव (महिलाओं और पुरुषों के बीच) पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बाद सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में पाया गया है।

मध्य प्रदेश की यह स्थिति तब है, जब शिवराज सरकार की लाड़ली लक्ष्मी योजना, तीर्थदर्शन योजना, कन्यादान योजना, अन्नपूर्णा योजना, मजदूर सुरक्षा योजना जैसी करीब दर्जन भर सामाजिक योजनाएं खासी सुर्खियां बटोर चुकी हैं। शिवराज सिंह चौहान की दिनों-दिन बढ़ती लोकप्रियता का श्रेय भी उनकी ऐसी ही योजनाओं को दिया जाता है। इस लोकप्रियता का आलम यह है कि शिवराज को प्रदेश के बच्चों का ‘मामा’ तक कहा जाने लगा है। लेकिन एमडीजी रिपोर्ट को देख कर तो लगता है कि ‘मामा’ शिवराज नहीं, असल में प्रदेश की जनता बनी है, क्योंकि राज्य में 11 साल के ‘शिव-राज’ के बाद भी विकास की की सड़क पर गड्‌ढे अब तक बरकरार हैं।

कस्बों का संकट : मदन कश्यप

मदन कश्यप
आजादी की रोशनी सारंडा और अबूझमाड़ के जगलों तक नहीं पहुँच पाती है तो दूसरी तरफ, यह कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में रोशनी कम फैलाती है, तपिश ज्यादा देती है। वर्गीय और जातीय भिन्नता के आधार पर आजादी के अलग-अलग मायने तो हैं ही। लेकिन, इस तथ्य की ओर लोगों का ध्यान प्रायः नही गया है कि स्वतंत्रता के बाद बदली हुई व्यवस्था में कस्बों का जीवन सब से ज्यादा संकटगस्त हो गया है। जो कस्बे अपने आंतरिक संसाधनों अथवा किन्हीं राजनीतिक समीकरणों से मिले लाभ के चलते शहर के रूप में विकसित हो गए, वे तो अपनी नई पहचान के साथ बच गए, लेकिन जिनका स्वरूप नहीं बदला है उनका रूप धीरे-धीरे विकृत होता जा रहा है। ऐसे कस्बों की अंतिम नियति है, पलायन।

पिछले दिनों कैराना की पलायन-कथा के सामने आने के बाद इस संकट की ओर ध्यान गया। हालाँकि दुष्ट राजनीति ने कैराना के संकट को एक सांप्रदायिक संकट के रूप मे पेश करने और उसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश की, लेकिन विराट झूठ को भेद कर जो तथ्य सामने आए उनसे यह तो जाहिर हो ही गया कि कस्बों में सांस्कृतिक अस्मिता ही नहीं बल्कि, जीवन भी खतरे में है। उनकी सामाजिक सरंचना गाँव जैसी नहीं होती, जिसमें अपने आप को बचाने की आंतरिक ताकत होती है। दूसरी तरफ, उन्हें वे सुविधाएँ  प्राप्त नहीं होतीं जो शहरों को होती  हैं और जिनके होने पर ही किसी शहर का होना संभव होता है।   

आजादी के बाद ग्रामीण विकास के साथ ही शहरों के लिए तो अलग-अलग योजनाएँ बनीं, लेकिन कस्बों के विकास पर अलग से ध्यान नहीं दिया गया। बस यह अपेक्षा की गई कि धीरे-धीरे वे शहर में बदल जाएँगे।  कुछ बदले भी, लेकिन जो पिछड़ गए उनकी नियति कैराना या मोकामा जैसी हो गई।           

कैराना जैसा ही बिहार में एक कस्बा है मोकामा, वहाँ भी पिछले कोई तीस वर्षों से पलायन, विशेष रूप से व्यापारियों  का,  जारी  है।  मोकामा छोड़ने वालों की सूची  बनाई जाए,तो वह कैराना से कहीं बड़ी होगी। बात केवल मोकामा या कैराना की नहीं है, शोध किया जाए तो देश में समृद्ध किसानों के गाँवों के आसपास ऐसे सौ से अधिक कस्बे होंगे, जहाँ तीस-चालीस साल पहले  काफी  रौनक  थी,  लेकिन  अब  वहाँ जीवन  संकट में  है। दरअसल, जिन कस्बों में बदलते समय के साथ उद्योग-धंधों का विकास नहीं हो सका और जो शहर में तब्दील नहीं हो सके, बस यथास्थिति को बचाने के प्रयत्न भर करते रहे, उन सब की हालत वही है जो कैराना या मोकामा की है। कस्बों के संकट के मोटे तौर पर तीन कारण दिखाई दे रहे हैं, जिनके माध्यम से कृषि संस्कृति के संकट को भी समझा जा सकता है। पहला यह कि ऐसे सभी कस्बे मुख्य रूप से आसपास के ग्रामीणों की जरूरतों को पूरा करते हैं और इनकी अर्थव्यवस्था धनी किसानों की क्रयशक्ति पर आधारित होती है। जबकि  पिछले तीस-चालीस वर्षों में औद्योगिक उत्पादों की तुलना में कृषि उत्पादों की कीमतें काफी कम बढ़ी हैं और किसानों का मुनाफा कम हुआ है, जिसका सीधा असर उनकी क्रयशक्ति पर पड़ा है (जमाखोरी के कारण जो महँगाई बढ़ती है उसका लाभ किसानों को तो नहीं ही मिलता है)। उनके अलावा धनी किसानों की जीवनशैली भी बदली है और अब वे अपनी जरूरतों के लिए आसपास या थोड़े दूरदराज के छोटे-बड़े शहरों की ओर उन्मुख हुए हैं। इन सब का असर कस्बों के व्यापार पर इतना गहरा पड़ा है कि उनका अर्थगणित ही गड़बड़ा गया है। कस्बों में रोजी-रोटी के गंभीर संकट पैदा हो गए हैं।

कस्बे का जीवन
दूसरा बड़ा संकट है रँगदारी। यह कोई नई परिघटना नहीं है। जब से वाणिज्य-व्यापार शुरू हुआ, तभी से रँगदारी वसूली भी शुरू हो गई, भले ही अलग-अलग कालखंडों में उसका स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा हो। बनियों को इसमें कोई उज्र भी नहीं होता, बशर्तें उनकी लूट अबाध गति से चल रही हो और वसूली जाने वाली कुल रँगदारियाँ उनके मुनाफे के कुछ प्रतिशत से अधिक नहीं हो। लेकिन जब व्यापार में आई मंदी के कारण रँगदारी देना भारी पड़ने लगता है और दूसरी ओर,  महानगरों-नगरों की अपेक्षा कमजोर या शिथिल  कानून-व्यवस्था के चलते वसूली और बढ़ती चली जाती है, तब व्यवसायी वर्ग के सामने पलायन की परिस्थिति पैदा हो जाती है।

कस्बों  से  पलायन  का  तीसरा  उल्लेखनीय  कारण  है,  बदलती  हुई  जीवनशैली और    बढ़ती आकांक्षाएँ, जिन्हें पूरा करने में पुरानी शैली के जीवन और जरूरतों पर आधारित कस्बा सक्षम नहीं होता। तब साधन संपन्न लोग बच्चों की अच्छी पढ़ाई, बेहतर स्वास्थ्य सुविधा और नए ढंग के बाजारों की उपलब्धता को नजर में रहते हुए आसपास के बड़े शहरों में शिफ्ट हो जाते हैं। वे पहले परिवार को वहाँ स्थानांतरित करते हैं, फिर धीरे-धीरे अपना व्यापार समेट लेते हैं और नए शहर में उसे जमा लेते हैं अथवा कोई अन्य व्यापार शुरू कर देते हैं।               

व्यापारियों के पलायन के ये तीन प्रमुख कारण हैं, जो रोजी-रोटी के लिए मजदूरों के पलायन से अलग हैं। इस दृष्टि से मोकामा से कैराना तक का अध्ययन किया जाए, तो संकटों को समझ कर कस्बों को बचाने के उपक्रम किए जा सकते हैं। लेकिन सत्तालोलुप राजनीतिक दलों को इन बुनियादी समस्याओं से कुछ लेना-देना नहीं है।

लेकिन बात इतनी ही नहीं है। वैसे कस्बे भी संकटग्रस्त हैं, जहाँ पलायन नहीं हुआ है और जो सौभाग्य से अभी तक अपराधियों के शिकंजे में नहीं आए हैं। मेरे गाँव के पास एक कस्बा है, लालगंज। यह ऐतिहासिक नगर है क्योंकि बुद्ध काल  में  इसके एक  विकसित  व्यापारिक  केंद्र  होने  की जानकारी मिलती है, तब इसका नाम नादियग्राम था। सत्ररहवीं सदी में यूरोपीय व्यापारियों ने यहाँ शोरे की फैक्टरियाँ लगाई थीं। कोलकाता को बसाने वाला जॉब चार्नक पहले यहीं की एक शोरा फैक्टरी का प्रबंधक था, उसकी सुविख्यात प्रेमिका भी शायद यहीं  की  थीं, लेकिन आज लगभग तीस हजार की आबादी वाला यह एक कस्बा है और इसके सारे उद्योग-धंधे नष्ट हो चुके हैं। है। लकड़ी का नक्काशीदार पलंग और उपस्कर इसका आखिरी उद्योग था, जो टिक प्लाई और सनमाइका के बढ़ते प्रचलन के साथ ही समाप्त हो गया।

यहाँ कैराना या मोकामा जैसा पलायन नहीं है। किन्हीं विडंबनापूर्ण परिस्थितियों के चलते उसने न केवल गाँव की संस्कृति अपना ली है बल्कि अपना मनोमिजाज भी गँवई लोगों जैसा बना लिया है। ढाई हजार वर्षों के लंबे इतिहास में पहले भी यह कस्बा नगर से गाँव में तब्दील हो चुका है और परिस्थिति के बदलाव के साथ फिर से एक व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर चुका हैं। लेकिन यह तब की बातें थीं जब व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं थी और किसी शहर का होना या न होना बहुत हद तक उस समय की राजसत्ता पर निर्भर था। यह कस्बा केवल  व्यापारिक  गतिविधियों के संकुचन ही नहीं, लोकतांत्रिक गतिशीलता और आजादी से भी महरूम है, केवल भौतिक स्तर पर नहीं, मानसिक स्तर पर भी। यहाँ का ‘शारदा सदन’ पुस्तकालय कभी उत्तर बिहार का सब से बड़ा पुस्तकालय था और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र भी। अब केवल उसका अस्तित्व बचा है। वह कस्बे की मनहूसियत, उदासी और असहायता का एक रूपक बन गया है। कैराना और मोकामा से भिन्न, मृत्यु की ओर बढ़ रहे कस्बे का यह तीसरा रूप है जिसे अपनी बीमारी का ठीक से पता भी नहीं है।

दरअसल, आजादी के इतने वर्षों के बाद भी न तो कस्बों के सामाजिक और नागरिक जीवन और उसकी आंतरिक और बाह्य संरचना को समझने का सरकारी स्तर पर कोई उपक्रम किया गया, न ही वहाँ की परिस्थितियों के अनुरूप  विकास  की योजनाएँ  बनाई  गईं।  सरकार को छोड़िए, रचनाकारों का ध्यान भी उन पर नहीं गया है। कम से कम हिंदी साहित्य में तो इस तरह के जीवन पर बहुत कम लिखा गया है। हमारे लेखन में गाँव हैं, महानगर हैं, और कुछ छोटे-बड़े शहर भी। लेकिन, कस्बे के जीवन पर कुछ ऐसा शायद नहीं लिखा गया है जो उल्लेखनीय हो और तत्काल जिसकी याद आए। इतिहास में जो उपेक्षित और अनुल्लिखित रह जाता है, साहित्य उसे दर्ज करता है। पर जो साहित्य में भी उपेक्षित रह जाए, उसे भला कैसे और किस रूप में बचाया जा सकता है? इस सवाल का उत्तर अभी आसान नहीं है, लेकिन इसके उत्तर की तलाश ही साहित्य का नया एजेंडा होना चाहिए।

आजादी  का  गहरा  रिश्ता लोकतंत्र  से  है। अन्य किसी  भी प्रकार की  व्यवस्था में सार्वजनिक आजादी की कल्पना नहीं की जा सकती। वहाँ आजादी शासन करने वाले समूह, वर्ग, कबीले या संप्रदाय से नियंत्रित होती है और उसके ही हित में गढ़ी गई नैतिकता से संचालित होती है। केवल लोकतंत्र में ही किसी देश या राष्ट्र की सांस्कृतिक बहुलता और सामुदायिक भिन्नता की रक्षा करते हुए समानता की एक आधुनिक अवधारणा निहित होती हैं। इस समानता की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता का ढाँचा खड़ा हो सकता है। अंबेडकर ने कहीं लिखा है कि ‘समानता एक कल्पना हो सकती है, फिर भी, व्यवस्था के सिद्धांत के रूप में इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।’ इस सिद्धांत की स्वीकृति के बगैर न तो सच्चा लोकतंत्र आएगा और न ही सच्ची आजादी मिलेगी। सब से बढ़ कर इसके बगैर सच्चा लोकतांत्रिक साहित्य भी नहीं रचा जाएगा।

दुर्भाग्य से कस्बों का लोकतंत्र न तो नगरों और महानगरों जैसा गतिविधिपूर्ण बन सका है, न ही उसका स्वरूप गाँव जैसा हो सका है। हर कस्बे में और कुछ चाहे न हो, एक थाना जरूर होता है। इस प्रकार, वह लगभग पूरी तरह एक थानेदार के अधीन होता है। वह नगर नहीं है कि जहाँ  थाने से अलग और ऊपर भी व्यवस्था के कई तंत्र होते हैं, न ही वह गाँव है जो प्रायः थानेदार की नजरों से दूर अपनी स्वायत्त व्यवस्था में जी रहा होता है। कस्बे पर     तो हमेशा थानेदार की नजर रहती है। अपराधरियों को भी वही नियंत्रित करता है और अपराध की दिशा भी वही निर्धारित करता है। कस्बाई पत्राकारों को भी खबरें थानेदार से ही लेनी पड़ती हैं। आधा कस्बा बचने के लिए थानेदार से दूर भागता है, तो आधा उसकी कृपा पाने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ता है। इस प्रकार, कस्बों में लोकतंत्र और आजादी थानेदारों के हवाले है।               

शोक : महाश्वेता देवी

মহাশ্বেতা দেবী
(14 जनवरी 1926 – 28 जुलाई 2016)


महाश्वेता देवी की लिखने की टेबुल कभी भी बदली नहीं। बालीगंज स्टेशन रोड में ज्योतिर्मय बसु के मकान में लोहे की घुमावदार सीढ़ी वाली छत के घर, गोल्फ ग्रीन या राजाडांगा कहीं भी क्यों न रहे, टेबुल हमेशा एक ही। ढेर सारे लिफाफे, निवेदन पत्र, सरकारी लिफाफे,  संपादित  ‘वर्तिका’ पत्रिका की प्रूफ कापियां बिखरी हुई। एक कोने में किसी तरह से उनके अपने राइटिंग पैड और कलम की बाकायदा मौजूदगी। सादा बड़े से उस चौकोर पैड पर डॉट पेन से एकदम पूरे-पूरे अक्षरों में लिखने का अभ्यास था उनका।

लिखना, साहित्य बहुत बाद में आता है। कौन-से  शबरों के गांव में ट्यूबवेल नहीं बैठा है, बैंक ने कौन सेलोधा नौजवान को कर्ज देने से मना कर दिया है - सरकारी कार्यालयों में लगातार चिट्ठियां लिखना ही जैसे उनका पहला काम था। ज्ञानपीठ से ले कर मैगसेसे पुरस्कार से विभूषित महाश्वेता जितनी लेखक थीं, उतनी ही एक्टिविस्ट भी थीं। 88 साल की उम्र में अपने हाथ में इंसुलिन की सूईं लगाते-लगाते वे कहती थीं, ‘तुम लोग जिसे काम कहते हो, उनकी तुलना में ये तमाम बेकाम मुझे ज्यादा उत्साहित करते हैं।’

इसीलिए महाश्वेता को सिर्फ एक रूप में देखना असंभव है। वे  ‘हजार चौरासी की मां’  हैं। वे  ‘अरण्य के अधिकार’ की उस प्रसिद्ध पंक्ति, ‘नंगों-भूखों की मृत्यु नहीं है’  की जननी हैं। दूसरी ओर वे सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन का एक चेहरा थीं। एक ओर उनके लेखन से बिहार-मध्य प्रदेश के कुर्मी, भंगी, दुसाध बंगाली पाठकों के दरवाजे पर जोरदार प्रहार करते हैं। और एक महाश्वेता ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से दिल्ली बोर्ड के विद्यार्थियों के लिये  ‘आनन्दपाठ’ शीर्षक संकलन तैयार करती हैं, जिम कार्बेट से लू शुन, वेरियर एल्विन का अनुवाद करके उन्हें बांग्ला में लाती है। उनके घर पर गांव से आए दरिद्रजनों का हमेशा आना-जाना लगा रहता है।

दो साल पहले की बात है। किसी काम के लिए कोलकाता आया एक शबर नौजवान महाश्वेता के घर पर टिका हुआ था। नहाने के बाद आले में रखी महाश्वेता की कंघी से ही अपने बाल संवार लिए। इस शहर में अनेक वामपंथी जात-पांतहीन, वर्ग-विहीन, शोषणहीन समाज के सपने देखते हैं। लेकिन अपने खुद के तेल-साबुन, कंघी को कितने लोग बेहिचक दूसरे को इस्तेमाल करने के लिये दे सकते हैं ? कैसे उन्होंने यह स्वभाव पाया ? सन 2001 में गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक को महाश्वेता ने कहा था, ‘जब शबरों के पास गई, मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए। आदिवासियों पर जो भी लिखा है, उनके अंदर से ही पाया है।’

नाटक 'हजार चौरासी की माँ' का एक दृश्य
सबाल्टर्न इतिहास लेखन की प्रसिद्धि के बहुत पहले ही तो महाश्वेता के लेखन में वे सब अनसुने सुने जा सकते थे। 1966 में प्रकाशित हुई थी  ‘कवि बंध्यघटी गात्री का जीवन और मृत्यु’। उसमें उपन्यासकार ने माना था, ‘बहुत दिनों से इतिहास का रोमांस मुझे आकर्षित नहीं कर रहा था। एक ऐसे नौजवान की कहानी लिखना चाहती थी जो अपने जन्म और जीवन का अतिक्रमण करके अपने लिए एक संसार बनाना चाहता था, उसका खुद का रचा हुआ संसार।’ ‘चोट्टी मुण्डा और उसका तीर’  वही अनश्वर स्पिरिट है। ‘चोट्टी खड़ा रहा। निर्वस्त्र। खड़े-खड़े ही वह हमेशा के लिये नदी में विलीन हो जाता है, यह किंवदंती है। जो सिर्फ मनुष्य ही हो सकता है।’ सारी दुनिया के सुधीजनों के बीच महाश्वेता इस वंचित जीवन की कथाकार के रूप में ही जानी जाएँगी। गायत्री स्पिवाक महाश्वेता के लेखन का अंग्रेजी अनुवाद करेंगी। इसीलिए महाश्वेता को बांग्ला से अलग भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

विश्व चिंतन से महाश्वेता का परिचय उनके जन्म से था। पिता कल्लोल युग के प्रसिद्ध लेखक युवनाश्वया मनीश घटक। काका ऋत्विक घटक। बड़े मामा अर्थशास्त्री, ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के संस्थापक सचिन चौधुरी। मां के ममेरे भाई कवि अमिय चक्रवर्ती। कक्षा पांच से ही शांतिनिकेतन में पढ़ाई। वहां बांग्ला पढ़ाते थे रवीन्द्रनाथ। नंदलाल बोस, रामकिंकर बेज  जैसे शिक्षक मिले। देखने लायक काल था। 14 जनवरी 1926  के दिन बांग्लादेश के पाबना (आज के राजशाही) जिले के नोतुन भारेंगा गांव में महाश्वेता का जन्म। इसके साल भर बाद ही  ‘आग का दरिया’ की लेखिका कुर्रतुलैन हैदर जनमी थीं। दोनों के लेखन में ही जात-पांत, पितृसत्ता का महाकाव्य-रूपी विस्तार दिखाई दिया। इस चेतना की ही तो उपज थी - ‘स्तनदायिनी’ का नाम यशोदा। थाने में बलात्कृत दोपदी  मेझेन द्रौपदी  का ही आधुनिक संस्करण है। भारतीय निम्नवर्ग एक समान पड़ा हुआ पत्थर नहीं, उसमें भी दरारे हैं, वह क्या ‘श्री श्री गणेश महिमा’ में दिखाई नहीं देता है : ‘भंगियों की होली खत्म होती है दो सूअरों को मार कर, रात भर मद्य-मांस पर  हल्ला करते हैं। दुसाध यहां अलग-थलग थे। फिर दो साल हुए वे भी भंगियों के साथ होली में शामिल है।’

अपनी साहित्य यात्रा के इस मोड़ पर आ कर महाश्वेता एक दिन रुक नहीं गईं। उसके पीछे उनकी लंबी परिक्रमा थी।  ’46 में विश्वभारती से अंग्रेजी में स्नातक हुईं एमए  पास करने के बाद विजयगढ़ के ज्योतिष राय कालेज में अध्यापन। उसके पहले 1948 से ‘रंगमशाल’ अखबार में बच्चों के लिये लिखना शुरू किया। आजादी के बाद ‘नवान्नो’ के लेखक विजन भट्टाचार्य से विवाह। तब कभी ट्यूशन करके, कभी साबुन का पाउडर बेच कर परिवार चलाया। बीच में एक बार अमेरिका में बंदरों के निर्यात की योजना भी बनाई, लेकिन सफल नहीं हुई। 1962 में तलाक, फिर असित गुप्त के साथ दूसरी शादी। 1976 में उस वैवाहिक जीवन का भी अंत।

इसी बीच, पचास के दशक के मध्य एकमात्र बेटे नवारुण को उसके पिता के पास छोड़ कर एक कैमरा उठाया और आगरा की ट्रेन में बैठ गईं। रानी के किले, महालक्ष्मी मंदिर का कोना-कोना छान मारा। शाम के अंधेरे में आग ताप रही किसान औरतों से तांगेवाले के साथ यह सुना कि ‘रानी मरी नहीं। बुंदेलखंड की धरती और पहाड़ ने उसे आज भी छिपा रखा है।’

मराठी फिल्म 'माती माय' में नंदिता दास
इसके बाद ही ‘देश’ पत्रिका में ‘झांसी की रानी’ उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित हुआ। और इस प्रकार, अकेले घूम-घूम कर उपन्यास की सामग्री जुटाने वाली क्रांतिकारी महाश्वेता अपनी पूर्ववर्ती  लीला मजुमदार,आशापूर्णा देवी से काफी अलग हो गईं। उनका दबंग राजनीतिक स्वर भी अलग हो गया। ‘अग्निगर्भ’ उपन्यास की वह अविस्मरणीय पंक्ति, ‘जातिभेद की समस्या खत्म नहीं हुई है। प्यास का पानी और भूख का अन्न रूपकथा बने हुए है। फिर भी कितनी पार्टियां, कितने आदर्श, सब सबको कामरेड कहते हैं।’ कामरेडों ने तो कभी भी ‘रुदाली’, ‘मर्डरर की मां’ की समस्या को देखा नहीं है। ‘चोली के पीछे’ की स्तनहीन नायिका जिस प्रकार ‘लॉकअप में गैंगरेप। ‘ठेकेदार ग्राहक, बजाओ गाना’ कहती हुई चिल्लाती रहती है, पाठक के कान भी बंद हो जाते हैं।

कुल मिला कर महाश्वेता जैसे कोई प्रिज्म हैं। कभी बिल्कुल उदासीन तो कभी बिना गप किए जाने नहीं देंगी। अंत में, बुढ़ापे की बीमारियों, पुत्रशोक ने उन्हें काफी ध्वस्त कर दिया था।

फिर भी क्या महाश्वेता ही राजनीति-जीवी बहुमुखी बंगालियों की अंतिम विरासत होंगी ? ममता बंदोपाध्याय की सभा के मंच पर उनकी उपस्थिति को ले कर बहुतों ने बहुत बातें कही थी। महाश्वेता ने परवाह नहीं की। लोगों की बातों की परवाह करना कभी भी उनकी प्रकृति नहीं रही।

(आभार : आनंदबाजार पत्रिका अनुवाद : अरुण माहेश्वरी)

नेल्सन मंडेला के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करते हुए

निबंध : गाय पर एक निबंध : राजकिशोर

राजकिशोर
याद नहीं बचपन में गाय पर निबंध कब लिखा था। जहिर है, प्राइमरी की किसी कक्षा में ही लिखा होगा। तब गाय  पर निबंध लिखना कितना आसान था। आज यह मुश्किल जान पड़ता है। क्योंकि, गाय के साथ राजनीति जुड़ गई है। जब राजनीति नहीं जुड़ी थी, तब गाय एक सीधा-सादा जीव थी। अब वह एक राजनीतिक जीव है। इतनी राजनीतिक कि उसे पशु कहते हुए डर लगता है।

कहना न होगा कि यह राजनीति भावनाओं से जुड़ी हुई है। लेकिन इसीलिए गाय पर लिखना आसान है। मामला वैज्ञानिक होता, तो इस पर विचार करना कठिन था। क्योंकि, विज्ञान तथ्यों पर आधारित होता है, वहाँ भावनाएँ नहीं, तथ्य निर्णय करते हैं। भावनाओं में तथ्यों से ज्यादा बल होता है, पर उनकी छानबीन संभव है और ऐसे निष्कर्षों तक पहुंचना आसान है जिन्हें तर्क-सम्मत कहा जा सकता है और जिन्हें सभी एक जैसी वैधता के साथ अपना सकते हैं।

एक समय था जब गाय के साथ धार्मिक भावनाएँ नहीं जुड़ी थीं जैसा आज है। इतिहासकार बताते हैं कि वैदिक काल में गाय और बछड़े का मांस खाया जाता था। यदि यह सही है, तब भी उनकी मान्यता में कोई फर्क नहीं पड़ता जो मानते हैं कि गाय ही क्यों, किसी भी जीव का मांस नहीं खाना चाहिए। वैदिक काल की संस्कृति भोगवादी संस्कृति थी। आर्य जीवन का भरपूर आनंद लेने वाले और मरने-मारने वाले आदमी थे। हिंसा उनके लिए वर्जित नहीं थी। लेकिन वे हमारे सब से पुराने पूर्वज थे, सिर्फ इसलिए हमारे आदर्श नहीं हो सकते। सच तो यह है कि मानव आदर्शों का संबंध किसी भी खास देश-काल से नहीं हो सकता। आदर्श वह है जो पूरे मानव इतिहास से छन कर आता है और जिसे हमारी बुद्धि स्वीकार करती हो। उपनिषदों का समय कम मूल्यवान नहीं है जब चिंतकों की संवेदना ज्यादा गहरी और व्यापक थी।

गाय के साथ धार्मिक संवेदना कब जुड़ी, यह तय करना कठिन है। लेकिन यह सच है कि मामला सैकड़ों वर्षों का है। यह बात मुस्लिम शासकों को भी पता थी, इसलिए उनमें से कई ने गाय मारने पर प्रतिबंध लगा रखा था। उन्हें खुद गाय का मांस खाने पर आपत्ति नहीं होती, क्योंकि उनके धार्मिक संस्कार इसके लिए उन्हें मना नहीं करते थे, पर वे जानते थे कि उन्हें एक ऐसे समाज पर शासन करना है जिसका अधिसंख्य गाय को माता मानता है और उसकी पूजा करता है। मेरा खयाल है, यही भावना उन सभी मुसलमानों की होगी जो जानते हैं कि अच्छा पड़ोसी होना क्या होता है।

लेकिन लोकतंत्र में कानून की सीमा होती है। आप कानून बना कर सभी को सभ्य नहीं बना सकते। इसलिए सभ्य से सभ्य शासन में भी जेलें होती हैं। लोकतंत्र में तय करना होता है कि किन चीजों पर कानून बनाया जा सकता है और किन चीजों पर नहीं। जैसे ब्राउन शुगर के सेवन पर रोक लगाई जा सकती है, पर धर्मांतरण को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। इसी तरह, कानून बना कर सभी को शाकाहारी नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए नैतिक प्रभाव की जरूरत होगी। हिंदू सैकड़ों साल से आम तौर पर शाकाहारी रहे हैं, तो इसके पीछे पता नहीं कितने ऋषियों-मुनियों  का नैतिक दबाव रहा होगा। आज यह दबाव नहीं है, इसलिए बहुत-से शाकाहारी परिवारों के लड़के भी मांस खाने लगे हैं।

कौन कहता है कि मांसाहार बनाम शाकाहार का प्रश्न नैतिक प्रश्न नहीं है। फिर तो हमें यह भी मंजूर करना होगा कि हिंसा का प्रश्न भी नैतिक प्रश्न नहीं है। एक जमाना था जब यह नैतिक प्रश्न नहीं रहा होगा। तब मजबूरी यह थी कि जीवित रहने के लिए क्या खाएँ – फल-कंद पूरे नहीं पड़ते थे। कबीलों के बीच लड़ाइयों में दो ही विकल्प हो सकते थे – मारो नहीं तो मार दिए जाओगे। सभ्यता के उस आदिकाल में कोई शाकाहार पर विचार ही नहीं कर सकता था। यह विचार तब आया जब सभ्यता कई कदम आगे बढ़ चुकी थी। महाभारत में कहा गया -  अहिंसा परमो धर्मः।

अहिंसा आज भी परम धर्म है, इसका आविष्कार हमारे युग में गांधी जी ने किया था। उनकी स्वीकारोक्ति है कि सत्य की अपेक्षा अहिंसा मेरे स्वभाव के ज्यादा निकट रही है। अहिंसा  की तलाश में ही वे सत्य के पास गए। मेरी पीढ़ी के लिए सत्य अहिंसा से बड़ा मूल्य है। सत्य के लिए अगर हिंसा होती है तो हो। लेकिन यह भी सच है कि जो सत्य हिंसा की ओर ले जाए, उससे दुनिया का काम नहीं चल सकता। दुनिया सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व पर निर्भर है। इसीलिए जिनके लिए गाय का मांस खाना वर्जित नहीं है, वे उनका लिहाज करते हैं जिनके लिए गाय का मांस खाना पाप है। लेकिन जो यह लिहाज करता न पाया जाए, तो उसके साथ कैसा सलूक किया जाना चाहिए? देश के किसी भी राज्य में गोमांस खाने की सजा मृत्युदंड नहीं है।

मैं यह तर्क नहीं दूंगा कि गाय और आदमी में आदमी का जीवन ज्यादा मूल्यवान है। जीवन जीवन है। और, इसी तर्क से गाय खाना ठीक नहीं है, तो बकता, भेड़ या सांप खाना भी ठीक नहीं है। जब हिंदू चित्त उदार होगा, तो वह सिर्फ एक पेड़ या एक जीव में पवित्रता नहीं देखेगा – अस्तित्व मात्र को पवित्र समझेगा। सिर्फ गाय को नहीं बचाया जा सकता। बचाना है तो सभी को बचाना होगा। आज का आदमी यही भाषा समझता है। इस भाषा में जो बोलेगा, वह हिंदू धर्म के एक बुनियादी मूल्य को प्रस्थापित करेगा। इस संदर्भ में यह तर्क बेमतलब है कि हिंदू धर्म के कई संस्करण हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित हैं। जब तर्क और मूल्य का प्रश्न आता है, तब प्रचलन दब जाता है। प्रचलन एक आदत है जिसे बदला जा सकता है। तर्क दुनिया में सभी जगह एक ही हो सकता है – देश और क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग नहीं। कोई कह सकता है कि मैं अतार्किक जीवन जीना चाहता हूँ। यह कोई अनहोनी बात नहीं है। अधिकांश लोग अतार्किक जीवन जीते हैं। कहना यह है कि आप अतार्किक जीवन किसी और पर थोप नहीं सकते।

गाय पर कोई भी निबंध तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक उसके दूध पर चर्चा न की जाए। बचपन से हमें पढ़ाया जाता है कि गाय दूध देती है, जैसे यह कि सूर्य प्रकाश देता है। सूर्य प्रकाश नहीं देता, यह उसकी जिम्मेदारी भी नहीं है। उसके उदित होने से प्रकाश फैलता है तो फैले - इसके लिए वह कहीं से भी जिम्मेदार नहीं है न इसके लिए उसे धन्यवाद देने की जरूरत है। वास्तव में हम जानते हैं कि सूर्य का उदित और अस्त होना भी माया है। सूर्य कभी अस्त नहीं होता, यह पृथ्वी की दैनिक गति है जिसके कारण वह अस्त होता हुआ दिखाई देता है। हम कहते हैं, शाम होते ही सूर्य अस्त हो जाता है। यह भी भाषा का छल है। शाम होते ही सूर्य अस्त नहीं होता, उसके अस्त होने से शाम होती है। पहले शाम, फिर रात। इसी तरह, गाय दूध देती नहीं है, बल्कि गाय का दूध हम उससे जबरन ले लेते हैं। यह गाय की उदारता नहीं, हमारी नृशंसता है।

गाय का दूध हमारे लिए नहीं होता, उसके बच्चे के लिए होता है, जैसे मानव स्त्री का दूध उसके अपने बच्चे के लिए होता है। किसी भी महिला प्राणी का दूध दूसरी महिला प्राणी के बच्चों के लिए नहीं होता। यह मनुष्य है जो हजारों वर्षों से गाय का दूध उसके बच्चों से छीन कर पीता रहा है और अपने परिवार को पिलाता रहा है। जिस पहले आदमी ने गाय का दूध दुहना चाहा होगा, उसकी मुसीबतों का अनुमान किया जा सकता है। गाय ने खूब राजी-खुशी से अपने को दुहवाना पसंद नहीं किया होगा। आज भी ग्वाला दुहते समय गाय के पिछले दोनों पैर बाँध देता है, ताकि वह बाधा न डाल सके। किसी भी गाय को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह प्रसन्नतापूर्वक दूध दे। गायों का जन्म आदमी को दूध पिलाने के लिए नहीं हुआ है। वे वैसे ही स्वतंत्र जीव हैंजैसे हम।

यह सत्य आने में बहुत समय लगा होगा कि दूध पीना मनुष्य के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि नुकसानदेह है। इस स्थापना के बहुत-से वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किए गए हैं। कुछ वर्षों से यह आंदोलन-सा चल रहा है कि दूध पीना छोड़ो – यह भी ‘एनिमल प्रोडक्ट’ है। यह समझ लेने के बाद गांधी जी ने अपने कई साथियों के साथ दूध पीना छोड़ दिया था। उसके बाद एक बार जब वे गंभीर रूप से बीमार पड़े, तब डॉक्टरों ने उन्हें दूध पीने की सलाह दी। यह गांधी जी के लिए नैतिक संकट का समय था। तब उन्हें और शिद्दत से महसूस हुआ कि जीवन ही जीवन का आहार है।

यह जानते वे पहले से ही थे। उन्होंने बार-बार चेताया है कि हिंसा किए बिना हम जी ही नहीं सकते। जीने में ही हिंसा है। लेकिन कितनी हिंसा? अधिकतम हिंसा या न्यूनतम हिंसा? अंधाधुंध हिंसा असभ्यता का लक्षण है। हिंसा पर विचार करते हुए गांधी जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दूध पीना अनिवार्य ही हो जाए, तो हमें अपने से बड़े डीलडौल के पशु का दूध नहीं पाना चाहिए – वह हमारी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। बकरी का कद हम से मिलता-जुलता है, इसलिए आदमी के लिए बकरी का दूध ज्यादा मुफीद है। गांधी जी बकरी का दूध पीते थे, इस पर हँसने वालों की संख्या को गिन पाना संभव नहीं है। लेकिन हमें इस पर विचार करना चाहिए कि यह उनका शौक या सनक नहीं थी। इसके पीछे एक सुचिंतित तर्क था। आदमी का शरीर और चित्त उसी के अनुसार बनता है जो वह खाता या पीता है। यह प्रचार दुष्टतापूर्ण  है कि उनकी बकरी को काजू-बादाम खिलाया जाता था। हमने ठीक ही पढ़ा है – ‘गांधी बाबा की तू बकरी, पत्ते ही तो खाती है।’

गाय से प्रेम सिर्फ सांप्रदायिक प्रेम होगा, तब गाय नहीं बचेगी। उसे एक नहीं तो दूसरा खाएगा। नहीं तो वह अन्य प्रकार से मरेगी।  दूध न देने वाली बूढ़ी गायों का क्या होता है? वे बूचड़खाने में जाती हैं या गोमांस के व्यापारियों के पास। हमारे देश से गोमांस का निर्यात बढ़ता जा रहा है और यह कारोबार ज्यादातर हिंदुओं के पास है। लेकिन अब सब से बड़ी समस्या है, नर-गायों का क्या करें। गांवों में अब बैल दिखाई नहीं देते। उनका काम मशीनें करने लगी हैं। इसलिए गाय के जब बेटी होती है, तब उसे रख लेते हैं, पर बेटा होता है, तो उसे अपनी चिंता करने के लिए खुला छोड़ देते हैं। इन्हैं कैसी मृत्यु प्राप्त होती होगी, इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल नहीं है। मनुष्यों में लैंगिक संतुलन जितना बिगड़ा हुआ है, उससे ज्यादा लैंगिक असंतुलन गायों की दुनिया में है। इसके नतीजे अच्छे नहीं हो सकते।

गाय गांधी जी को भी प्यारी थी, पर वे इसे सामान्य पशु-प्रेम के रूप में लेते थे। गोरक्षा का हाल उन्होंने देखा था, तो वे गोरक्षा के बजाय गोसेवा की बात करने लगे। वास्तव में गोसेवक ही गोरक्षक हो सकता है। बाकी सब तो राजनीतिक कार्रवाई है जिसका संबंध गाय से नहीं, एक विशेष समुदाय से है।  गांधी जी का कहना था कि गाय मेरे लिए समस्त पशु जगत की प्रतिनिधि है। इसीलिए वे सिर्फ गाय से नहीं, सभी जीवों से प्रेम करते थे। यहाँ तक कि साँपों को भी वे नहीं मारते थे। वर्धा में, जहाँ उनका सेवाग्राम आश्रम था, साँप बहुत हैं। आजकल उन्हें देखते ही मार दिया जाता है। गांघी जी मारते नहीं थे, सांपों का अध्ययन करते थे। इसके आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश सांप विषहीन होते हैं। गो प्रेम हमें अहिंसक बनाता है तो उसका स्वागत है। वह हमें और ज्यादा हिंसक बनाता है, तो उस पर पुनर्विचार की जरूरत है।

कश्मीर की पीड़ा : आशुतोष कुमार

आशुतोष कुमार
कश्मीर का शरीर ही नहीं, मन भी घायल है। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में उसने भारत के साथ जुड़ने का निर्णय इसलिए किया था कि यह गांधी और नेहरू का देश था और भारत से उसे न्याय और लोकतांत्रिक व्यवहार की आशा थी। लेकिन विलय के बाद  कश्मीर की जनता ने जिस किसी पर भरोसा किया, उसी ने उसके साथ  विश्वासघात  किया - जवाहरलाल  नेहरू  ने, शेख अब्दुल्ला  ने, इंदिरा गांधी  ने, फारूक अब्दुल्ला ने, राजीव  गांधी  ने। आज वह गुस्से में है – और दिशाहीन भी। लेखक का कहना है कि फौज के सहारे उसे अनंत काल तक भारत के साथ रख पाना कठिन होगा, लेकिन संवाद की शुरुआत के लिए जरूरी है कि कश्मीर की जनता को भी वे लोकतांत्रिक अधिकार मिलें जो देश के बाकी हिस्सों की जनता को मिले हुए हैं। लोकतंत्र की बहाली ही कश्मीर की पीड़ा को कोई रचनात्मक रूप दे सकती है।

कश्मीर एक नए मोड़ पर
कश्मीर में हालात बेहद संगीन हैं। बीते नौ अगस्त को खुद गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्य  सभा में यह बयान दिया था। दस अगस्त को राज्य सभा में कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई। बारह अगस्त को सर्वदलीय बैठक भी हो चुकी है। पन्द्रह अगस्त को लाल किले से भाषण देते हुए प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान, गिलगिट-बाल्टिस्तान और पाक–अधिकृत कश्मीर का जिक्र किया। भारतीय कश्मीर की चर्चा नहीं  की। बलूचिस्तान आदि के जिक्र को अहम नीतिगत बदलाव के रूप में देखा जा रहा है।

भारत ऐसी टिप्पणियों से बचता रहा है। 16 जुलाई 2009 को शर्म-अलशेख से जारी भारत और पाकिस्तान के संयुक्त बयान में पहली  बार बलूचिस्तान का जिक्र आया था। तब बीजेपी के नेताओं ने इसे  भारत के लिए शर्मनाक दिन बताया था। कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के बयानों को भारत अपने ‘आंतरिक मामले में हस्तक्षेप’ करार देता है। इस तरह के हस्तक्षेप को वैधता न मिले, इसीलिए स्वयं बलूचिस्तान और  तिब्बत जैसे मुद्दों पर बोलने से बचता रहा है। पहली बार उसने ऐसा खतरा उठाना तय किया है।

खतरा यह है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा कश्मीर में मानवाधिकारों का प्रश्न उठाया जाता है तो भारत के लिए अब इसे  अपने आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बता कर टाल देना आसान नहीं  होगा। ऊपर से देखने पर भारत की नई नीति आक्रामक लग सकती है। ध्यान से देखा जाए तो यह एक तरह से कूटनीतिक समर्पण है। आज  तक भारत जोर दे कर कहता आया था कि कश्मीर के मुद्दे पर किसी  तीसरे पक्ष को दखलअंदाजी करने की इजाज़त नहीं है। अब वह एक  शिकायत-कर्ता देश के रूप में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने    पाकिस्तान के बराबर खडा हो गया है। पाकिस्तान लम्बे समय से  कश्मीर का रोना रोता रहा है और दुनिया आम तौर पर अनसुना करती  रही है। कहीं भारत की शिकायतों का भी यही हश्र न हो।

प्रधानमंत्री के लाल किले  वाले  भाषण  पर  प्रतिक्रिया  देते  हुए अमेरिकी राज्य विभाग की प्रवक्ता एलिजाबेथ त्रूदों ने पाक-अधिकृत कश्मीर का जिक्र किए बगैर भारतीय कश्मीर में चल रहे हिंसक टकराव  पर चिंता प्रकट की और संकट के समाधान के लिए ‘भारत और  पाकिस्तान के बीच बातचीत’ की जरूरत को रेखांकित किया। यह भारत  की इस पोजीशन की आलोचना है कि वह भारतीय कश्मीर के हालात   पर बातचीत नहीं करेगा।

भारत की असुविधाजनक कूटनीतिक स्थिति के पीछे कश्मीर के  बिगड़ते हुए हालात हैं। चालीस से अधिक दिनों से कर्फ्यू के बावज़ूद  हिंसक टकराव जारी है।। आठ जुलाई को सुरक्षा बलों के हाथों हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की मौत हुई। वानी को कश्मीर का  नया पोस्टर बॉय कहा जाता था। उसके जनाजे में अभूतपूर्व भीड़  उमड़ी। समूचे कश्मीर में लाखों लोग उसके मातम में सडकों पर  निकले। तब से विभिन्न इलाकों में पत्थरबाजी की घटनाएं हो रही हैं। इन्हें नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा बलों को कठोर कार्रवाई करनी पड़ी  है। आंसू गैस, छर्रा–बन्दूकों और गोलीबारी का जम कर इस्तेमाल हो  रहा है। इन कार्रवाइयों में अब तक पैंसठ से ज्यादा लोगों को जान से  हाथ धोना पड़ा है। घायलों  की  संख्या  हजारों में है। बड़ी संख्या उन  घायलों की है, जो छर्रों से अपनी एक या दोनों आँखें गंवा बैठे हैं। उपद्रवी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए छर्रा-बन्दूकों का इस्तेमाल  दुनिया में कहीं नहीं होता। कभी गोली चलानी पड़े तो भी निशाना आँखों  को नहीं, पैरों को बनाया जाता है। भारत में भी छर्रों का सिलसिला   2010 से ही शुरू हुआ है। इन बन्दूकों का असर देख कर कश्मीर गए  एम्स के डॉक्टर भी विचलित हो उठे। उन्होंने इनके इस्तेमाल पर रोक  लगाने की मांग  की। यह मांग संसद के भीतर भी उठी। लेकिन अब  भी इन बन्दूकों का इस्तेमाल अबाध रूप से जारी  है।

दुनिया भर में खबरें छप रही हैं। पाकिस्तान को शोर मचाने का  सुनहरा मौका हासिल हो गया  है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त ने जांच-पड़ताल के लिए भारत और पाकिस्तान से कश्मीर  के दोनों हिस्सों में आने की इजाजत मांगी। न मिलने पर निराशा  जताई। भारत पर जवाब देने का दबाव बढ़ता जा रहा है। इससे बचने  का बलूचिस्तान की तरफ दुनिया का ध्यान खींचने के सिवा और कोई  उपाय उसे सूझ नहीं रहा।

सैनिक कार्रवाई की सीमाएंइसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर की समस्या अपने इतिहास के सब से नाजुक दौर में है। 2008 और 2010 के तूफान से गुजर कर आए कश्मीर में  2014 के चुनाव नई उम्मीद ले कर आए थे। इन  चुनावों में 65 प्रतिशत से ज्यादा वोट पड़े थे। जम्मू-कश्मीर के  इतिहास  में पहले कभी मतदाताओं ने चुनावों में इतनी रुचि नहीं दिखाई थी। आम तौर पर शान्ति थी।  पर्यटन उरूज पर था।

लेकिन 2016 के आते-आते हालात एकदम पलट गए। इस तीखे  बदलाव की सबसे भरोसेमंद गवाही खुद सेना के एक शीर्षस्थ अधिकारी लेफ्टिनेंट-जनरल जी एस हूडा ने दी। उन्होंने एक इंटरव्यू में एसोसिएटेड  प्रेस को बताया कि कश्मीरी लड़ाकों के खिलाफ अभियान चलाना इन  दिनों बेहद मुश्किल हो गया है। सेना के लिए आम जनता की  सहानुभूति बहुत कम हो गई है। लोग लड़ाकों की तरफ़ झुक गए हैं। अगर आस-पास लोगों की भीड़ हो तो सुरक्षा कार्रवाइयों के  दौरान  पहले जैसी निश्चिंतता महसूस नहीं होती। कश्मीर में सेना जो कर  सकती थी, कर चुकी है। इससे आगे कुछ करने की स्थिति नहीं है। वृत्तांत (नैरेटिव) की लड़ाई में हमारी हार हो रही है। हमारी बताई  कहानी की जगह लोग लड़ाकों की कही कहानी पर भरोसा करने लगे  हैं। कश्मीर में पहली बार सेना को इतनी प्रतिकूल परिस्थिति का  सामना करना पड़ रहा है। 

लेफ्टिनेंट-जनरल हूडा के इस बयान में साफगोई और  सचाई  है। आंतरिक संघर्षों में जनता के समर्थन के बगैर कोई फौज जीत नहीं  सकती। फौज गोपनीय सूचनाओं और स्थानीय सहयोग के लिए जनता  पर निर्भर करती है। अगर लोग फौज की जगह लड़ाकों के साथ  सहयोग करने लगें और फौजी कार्रवाइयों में बाधा डालने लगें तो किसी  भी फौज के लिए देर तक लड़ना संभव नहीं  है। अफगानिस्तान और  इराक  में दुनिया की ताकतवर फौजों के साथ ऐसा होते देखा गया है। जमीन पर जीतने की पहले किसी भी फौज को वृत्तान्त की लड़ाई जीतनी होती है।

ध्यान देने की बात है कि अफसर का यह बयान बुरहान वानी की  मौत के पहले का है। स्थिति अब कई गुना अधिक खराब हो चुकी है। कठोरतम सैनिक कार्रवाई के बावजूद लोग हजारों की संख्या में बाहर  निकल रहे हैं। शहरों से ले कर गांवों तक यही सिलसिला चल रहा है। प्रदर्शन होते हैं। पत्थरबाजी होती है। सेना रोकती है। छर्रे–गोलियां  चलती हैं। लोग मरते हैं। घायल होते हैं। हर एक मौत के बाद फिर  वैसे ही बड़े विरोध–प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं।
 

सेना की कार्रवाई में ‘अतिरेक’ की चर्चा संसद तक में हुई है। प्रदर्शनकारियों के चेहरों और आँखों पर निशाना साधने का औचित्य साबित करना सचमुच कठिन है। घायलों को ढोने वाली एम्बुलेंसों को  भी निशाना बनाया जा रहा है। शायद इस भय से कि कहीं उनमें  आतंकवादी न छुपे हों। एम्बुलेंस चलाते हुए जिन ड्राइवरों को छर्रे लगे, उनमें एक गुलाम मुहम्मद सोफी हैं। वे चौदह साल के एक बच्चे समेत दो लोगों को हस्पताल ले जा रहे थे। उनके दाहिने हाथ में दो सौ छर्रे  लगे। खून बहता रहा, लेकिन एक हाथ से ड्राइव करते हुए उन्होंने मरीजों को सकुशल हस्पताल पहुंचाया। युद्ध के दौरान भी एम्बुलेंस को निशाना  बनाने की मनाही होती है। अभी तक एम्बुलेंस में आतंकियों के छुपे  होने का कोई मामला सामने नहीं आया  है। लेकिन एक हद तक बढ़  जाने के बाद भय अपना पुनरुत्पादन करने लगता है। उसे अपने अतिरिक्त किसी दूसरे आधार या तर्क  की जरूरत नहीं रह जाती।  एटीएम मशीन के एक खवाले के शरीर में तीन सौ छर्रे मिले। उसकी  मृत्य हो गई।

कश्मीरी अखबारों में रोज खबरें छप रही हैं कि दूर-दराज़ के  गांवों में फौज  की रेड हो रही है। लोगों का  कहना  है  कि  बिना  किसी उकसावे  के दमनात्मक कार्रवाइयां की जा रही  हैं। अरिपंथान में  ऐसी  एक  कार्रवाई  में  चार  लोग मारे   गए। इसी तरह ख्रेव में में   तीस  साल  के एक लेक्चरर  को  पीट  पीट  कर  मारा  डाला  गया। केंद्र  द्वारा सार्वजनिक रूप से बार बार दिए जा रहे अधिकतम संयम  के  निर्देश के बावजूद सरक्षा बलों की आक्रामकता में कोई कमी नहीं आ  रही। कर्फ्यू लगातार जारी है। मोबाइल – इंटरनेट सेवाएं अक्सर बंद कर  दी जाती हैं। कुछ दिनों के लिए अखबारों का वितरण भी रोका गया।

लेकिन क्या इन ‘अतिरेकों’ के लिए सुरक्षा बलों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? सैन्य एजेंसियां हमेशा सरकार द्वारा तय की  गई नीतियों को सरकार द्वारा सुझाए गए ढंग से लागू करती  हैं। अगर ऐसा न करें तो सरकार उन्हें तत्क्षण रोक सकती है। भारत में सेना के  पास कोई स्वायत्त सत्ता नहीं  है, जैसी उसे पाकिस्तान या म्याम्मार में  हासिल है। तो क्या सरकार आंतरिक रूप से दमन के बेरहम तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है, और सार्वजनिक रूप से संयम बरतने का निर्देश जारी कर रही है? अगर ऐसा है तो यह एक पाखण्डपूर्ण स्थिति है। यह देश के अलावा सेना के साथ भी धोखा है। किसी भी सेना के लिए सब से कठिन परिस्थिति वह होती है, जब उसे आंतरिक  संघर्षों से निपटने के काम में लगा दिया जाता है। सेना की सारी  तैयारी शत्रु सेना से युद्ध करने के लिए होती है। शत्रु से लड़ते हुए मरने–मारने का एक गौरव होता है। ‘शत्रु’ अगर लोगों के बीच छुपा हुआ हो तो अपने ही  देश की जनता से युद्ध जैसी स्थिति बन सकती है। इस  युद्ध में न मारने  का गौरव है, न मरने का संतोष। खतरा सब से  अधिक, क्योंकि दुश्मन अदृश्य  है। वह कभी भी, कहीं से भी, प्रकट हो  सकता है। सैनिक के लिए इससे अधिक तनावपूर्ण स्थिति नहीं हो  सकती। अगर उसे लम्बे समय तक, जान हथेली पर रख कर, ऐसा काम  करना पड़े, जिससे उन्हीं लोगों के मन  में  नफरत और गुस्सा पैदा  होता हो, जिनके  लिए जीने-मरने का संकल्प ले कर उसने अपने  जीवन का नक्शा बनाया था, तो इसके अवांछित मनोवैज्ञानिक नतीजे हो  सकते हैं।

तिस  पर सरकार उसके हाथों हुई मानवाधिकार की हर चूक को ‘अतिरेक’ बता कर ‘संयम’ बरतने के निर्देश जारी कर देती है। स्वयं ऐसे हर पाप की जिम्मेदारी से अपने हाथ झाड़ लेती है। जांच, सजा और  सार्वजनिक अपमान का खतरा हमेशा सैनिक के सर पर ही मंडराता  है।    ऐसे में यह नामुमकिन है कि उसका व्यवहार हमेशा संयत बना रहे।  यह अकारण नहीं है कि पिछले दशक में सेना में  मनोरोग, आत्महत्याएं और बन्धु-हत्याएं बढ़ी हैं। हर साल तक़रीबन सौ सैनिक खुद अपनी जान  ले रहे हैं। 2014 में रक्षा मंत्री परिक्कर द्वारा दी गई जानकारी के  मुताबक सन 2007 और 2008 में यह संख्या क्रमशः 142 और 150 थी। इतनी बड़ी कीमत चुकाने के बाद भी सेना के भीतर वृत्तान्त की  लड़ाई में हार का अहसास बढ़ता जा रहा है। इस त्रासद लड़ाई में जीत  जैसी कोई चीज होगी, इसकी उम्मीद लगभग खत्म हो चुकी है। क्या  सेना की ऐसी  हालत  देश के हित में है?

आज कश्मीर कल भारतआजादी के बाद से ही कश्मीर पाकिस्तान की राजनीति का केन्द्रबिंदु रहा है। इस राजनीति ने पाकिस्तान को सैन्य तंत्र में बदल दिया है। लोकतंत्र  वहां सेना के रहमो-करम पर जिंदा है। जैसे-जैसे कश्मीर भारतीय राजनीति का केन्द्रबिंदु बनता जाएगा, भारत के लिए भी ऐसी परिणति से बचना कठिन होता जाएगा।

कश्मीर में लोकतंत्र को पनपने का अवसर नहीं मिला। जम्मू-कश्मीर समेत समूचे उत्तर-पूर्व में अफ्स्पा लागू है। एनएसए और  यूएपीए जैसे दमनकारी ‘विशेष’ कानून देश भर में लागू हैं। राज्यों में  उनके अपने विशेष कानून हैं। आसाधारण परिस्थिति और आपात  स्थिति के तर्क से इन कानूनों को जायज ठहराया जाता है। इनमें से  बहुतेरे कानून अंग्रेजों के उन कानूनों से भी अधिक काले  हैं, जिनके खिलाफ भारतवासियों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। यह भी सर्वज्ञात  है कि इन कानूनों का सब से अधिक दुरुपयोग कमजोर वर्गों, जैसे आदिवासियो, मुसलमानों और दलितों, के विरुद्ध होता आया है। अगर ‘असाधारण’ और ‘विशेष’ कानून स्थायी और आम हो  जाएं तो लोकतंत्र  पर सैन्य तंत्र पर हावी हो जाता है।

यथास्थिति के पक्ष में जनमत बनाने के लिए उग्र, आक्रामक और  अतार्किक राष्ट्रवाद की जरूरत होती है। ऐसे माहौल में बातचीत, बहस और विचार-विमर्श की गुंजाइश नहीं रह जाती। छोटी से छोटी  असहमति को भी देशद्रोह करार दे कर दबा दिया जाता है। यथास्थितिवादी सरकार असहमति और बहस के विस्तार का खतरा नहीं उठा सकती। उसके पास असुविधाजनक सवालों के उत्तर नहीं होते। उसे मजबूरन दमनकारी कानूनों और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करना  पड़ता है।

फिर इस वातावरण को बनाए रखने के लिए यथास्थिति कायम  रखनी पड़ती है। संकट के नाम पर ही इस कष्टप्रद राजनीतिक  वातावरण को जनता के लिए स्वीकार्य बनाया जा सकता है। संकट नहीं  तो विशेषाधिकारों का तर्क नहीं।

कश्मीर में बढ़ता हुआ दमन नफरत और उन्माद की राजनीति को  जनाधार मुहैया करता है। लोग रोज-ब-रोज की अपनी तकलीफों को  भूल कर सरकार के साथ खड़े होने लगते हैं। कश्मीर का संकट  राजनीतिक तंत्र के संकट का समाधान बन जाता है।

इस तरह कश्मीर के संकट और देश में उन्माद की राजनीति का    दुश्चक्र बन जाता है। दोनों एक-दूसरे की लिए जरूरी और मजबूती देने वाले बन जाते हैं। यह दुश्चक्र राजनीतिक वर्ग का रक्षा-कवच है। भले  ही जनता पर दमनकारी शिकंजा और कस जाए।

यों ‘कश्मीर’ घाटी से निकल कर देश भर में व्यापने  लगता  है।

कश्मीर संकट के मिथक जाहिर है, कश्मीर में यथास्थिति देशहित में नहीं है। इसके दुष्परिणाम  कश्मीर की जनता को, भारतीय सेना को, देश की बाकी जनता को भी  भुगतने पड़ रहे हैं। कश्मीर का संकट भारतीय लोकतंत्र को खतरे में  डाल रहा है। उन्मुक्त बातचीत और जीवंत बहसों के लोकतांत्रिक  वातावरण की जगह देश भर में उन्माद, हिंसा और दमन का लोकतंत्र-विरोधी वातावरण बन रहा है। लेकिन, समाधान क्या है?
मैं यहां समाधान का सवाल भारत के नजरिए से उठा रहा हूं।

सभी हिस्सेदारों के लिए कश्मीर के संकट का मतलब अलग-अलग  है। समाधान संकट की पहचान पर निर्भर करता है। बहुत-से कश्मीरियों  की नजर में कश्मीर पर भारत का कब्जा अवैध है। उनका  कहना  है  कि विलय पत्र पर राजा ने दस्तखत किए थे। अवाम से उसकी ताईद कराने का काम अब तक बाकी है। यह ताईद विलय की शर्त थी। उनके  मुताबिक भारत ने यह शर्त पूरी नहीं की। उसने फौज-फांटे के बल पर  कश्मीर पर कब्जा कर रखा है। उनके लिए कश्मीर संकट का एकमात्र   समाधान कश्मीर की आजादी है। कुछ के लिए पाकिस्तान के साथ  विलय भी एक विकल्प हो सकता है। भारत-समर्थक कुछ लोग 1953 से  पहले की स्थिति की बहाली की बात करते हैं, जब धारा 370 के  प्रावधानों को कमजोर नहीं किया गया था। इसका मतलब है रक्षा, विदेशी  मामले  और  संचार  को  छोड़ कर बाकी सभी मामलों में  कश्मीर की पूर्ण स्वायत्तता।

लेकिन यहां मैं एक गैर-कश्मीरी भारतीय नागरिक के नजरिए से  बात करना चाहता  हूं। हमारे कश्मीर संकट का समाधान क्या है? उस  राजनीतिक-सामाजिक दुश्चक्र से निजात पाने का रास्ता क्या  है, जिसका केन्द्रक कश्मीर की ‘असामान्य’ स्थिति है?

इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी नजर  में कश्मीर संकट की असली वजह क्या है।

यहीं हमारी मुलाक़ात कश्मीर संकट के बहुतेरे मिथकों से होती है।

बहुत-से लोग मानने लगे हैं कि कश्मीर के संकट के पीछे असली  वजह पाकिस्तान है। संसद में हुई हालिया बहस में स्वयं गृह मंत्री ने  कहा कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए पाकिस्तान जिम्मेदार है। जब तक पाकिस्तान को सबक नहीं सिखाया जाता, कश्मीर का मसला हल नहीं होगा। लेकिन पाकिस्तान को सबक कैसे सिखाया जाए?

नया आइडिया यह है कि पाकिस्तान को बलूचिस्तान में उसी  तरह फंसा दिया जाए, जिस तरह उसने हमें कश्मीर में फंसा रखा है। इसके अपने कूटनीतिक खतरे हैं, जिनका जिक्र लेख की शुरुआत में है। दूसरे, पाकिस्तान भारत की तरह ही एक एटॉमिक पावर है। इसलिए हवा  में चाहे जितनी तलवार भांज ली जाए, भारत और पाकिस्तान के बीच  वास्तविक युद्ध अब सम्भव नहीं है। दोनों खुद को बर्बाद करने को तैयार भी हो जाएं तो दुनिया, माने अमेरिका, उन्हें ऐसा करने नहीं देगी। अमेरिका  को अपने ही कारणों से पाकिस्तान की जरूरत है। वह  पाकिस्तान का इस्तेमाल कथित अल क़ायदा के खिलाफ अपने सैनिक  अड्डे की तरह करता है। इसलिए भारत उससे लाख दोस्ती कर ले, न  तो वह भारत और  पाकिस्तान  के बीच  युद्ध की इजाजत देगा, न  ही  कश्मीर के मसले पर पलड़े को भारत के पक्ष में झुक जाने की। ऊपर  अमेरिकी राज्य विभाग की प्रवक्ता के ताजा बयान का जिक्र किया  गया है, जिससे यह बात एकदम साफ हो जाती है।

पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ भी है। चीन के आर्थिक–राजनीतिक हित भी भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ जुड़े हुए हैं। वह भी भारत और पाकिस्तान को संतुलित करने वाले कश्मीर नाम के लिवर के साथ अधिक छेड़-छाड़ गवारा नहीं कर सकता। चीन और  अमेरिका दोनों का स्वार्थ इसी में है कि कश्मीर में यथास्थिति यानी    भारत-पाकिस्तान के बीच ‘नियंत्रित शत्रुता’ बनी रहे। दोनों को एक  दूसरे का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। वैसे ही जैसे दोनों मुल्कों के शासक वर्ग का हित कश्मीर के मसले को जिंदा रखने  में है, उसे हल करने में नहीं।

कितना जिम्मेदार है पाकिस्तान क्या सचमुच पाकिस्तान ही कश्मीर संकट के लिए पूरी तरह  जिम्मेदार है? कश्मीर की वर्तमान ‘अशांति’ सुरक्षा बलों के हाथों बुरहान  वानी की मौत से उत्प्रेरित है। इस पर एक बहस यह है कि बुरहान को  ठिकाने लगाने का यह सही वक़्त था या नहीं। राज्य की कमान एक  अनुभवहीन मुख्यमंत्री के हाथ में थी। सत्ताधारी गंठबंधन के भीतर  इतना तनाव था कि पुराने मुख्यमंत्री की मौत के बाद कई दिनों तक  राजनीतिक अनिश्चितता बनी रही थी। बुरहान की सब से ज्यादा  सक्रियता सोशल मीडिया पर थी। उसका चेहरा जाना-पहचाना  था। उसने  जान-बूझ कर चेहरा छुपाया नहीं था। वह लम्बे समय से एजेंसियों के रडार पर था। उसे आसानी से गिरफ्तार किया जा सकता था। ऐसा होने  पर निश्चय ही वह भावनात्मक प्रतिक्रिया न होती, जिसने आज कश्मीर  में अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। 

जो भी हो, बुरहान की मौत में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है।

इसके पहले 2008 और 2010 में जन आक्रोश प्रकट हुआ था।  क्रमशः अमरनाथ यात्रा ट्रस्ट को जमीनें सौंपने के सरकारी फैसले और फर्जी मुठभेड़ में तीन निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के बाद। फर्जी मुठभेड़  के मामले में जांच हुई और दोषी पाए गए सात फौजियों को सजा भी  मिली। जाहिर है,  इन घटनाओं में पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं थी।

बीते दो दशकों में जब कभी कश्मीर अशांत हुआ, स्थानीय कारणों  से हुआ। अन्यथा शान्ति  बनी  रही। इसलिए अशांति के लिए  पाकिस्तान को ‘श्रेय’ देना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता।

कश्मीर में नब्बे के दशक में चले आतंकवादी आन्दोलन के प्रमुख  सूत्रधार जरूर पाकिस्तान में बैठे लश्करे-ताइबा और जैशे मुहम्मद जैसे संगठन थे। माना जाता है कि इन संगठनों को पाकिस्तानी सेना और  सरकार का सक्रिय सहयोग हासिल था। सोवियत संघ के पतन  के  बाद अफगानिस्तान में पाक–पोषित, अमेरिका-समर्थित तालिबान के पास  काम की कमी हो गई थी। कश्मीर में आतंकी गतिविधियां बढ़ा कर वे  अपने लड़ाकों को नए काम पर लगा सकते थे। साथ ही, पाकिस्तानी  फौज  के साथ अपने समीकरण भी साध कर रख सकते थे।

कश्मीर की जनता के मन में भारतीय राज्य के खिलाफ जो  गुस्सा धीरे-धीरे इकट्ठा होता गया है, उससे आतंक के इन व्यापारियों  को कश्मीर में मनचीता माहौल मिल गया। तो भी नब्बे के दशक में   स्थानीय युवकों की भागीदारी कम थी। आतंक  को अवाम  का सक्रिय  समर्थन हासिल नहीं था।

2001 में नाइन इलेवन हुआ और अमेरिका ने तालिबान के  खिलाफ़ विश्वव्यापी युद्ध का आगाज कर दिया। बदली हुई  परिस्थितियों  में पाकिस्तान को तालिबान  के सक्रिय  समर्थन  से हाथ खींचने  पड़े। इसी के साथ कश्मीर में आतंकी गतिविधियां सिमटती चली गईं। आज घाटी में विदेशी या विदेशों में प्रशिक्षित लड़ाकों की संख्या अत्यंत  सीमित है। 2004 के बाद से घाटी में आतंकी घटनाओं का ग्राफ तेजी  से नीचे गिरता चला गया है।

आज की स्थिति बिलकुल जुदा है।

वर्तमान अशांति में न केवल स्थानीय युवक भारी संख्या में  शामिल हैं, बल्कि उन्हें आम जनता का भरपूर समर्थन  मिल रहा है। इनके हाथों में विदेशी हथियार नहीं हैं, गली-सड़क से उठाए गए पत्थर  हैं। माता-पिता, जो नब्बे के दशक में अपनी युवा संतानों को बरजते थे, आज उनका उत्साह बढ़ाते नजर आ रहे हैं। जनाजों में आम लोगों की विराट भागीदारी दिखा रही है कि राज्य का भय समाप्त हो चुका है।  बच्चे और महिलाएं भी जलसों-जुलूसों में शरीक हो रहे हैं। आज कश्मीर  का कोई जानकार स्वीकार नहीं करेगा कि वर्तमान अशांति पाकिस्तान  द्वारा प्रेरित या प्रायोजित है।

कश्मीर से पाकिस्तान का संबंध जोड़ने वाले यह भूल जाते हैं कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्त्व में कश्मीर की जनता ने उस वक्त  पाकिस्तान की जगह भारत का समर्थन किया था, जब देश में साम्प्रदायिक तनाव चरम पर था। वे होलोकास्ट के बाद बीसवीं सदी  की  दूसरी सब से बड़ी त्रासदी भारत विभाजन के दिन थे।

कश्मीर में प्रतिरोध का मुख्य एजेंडा आजादी है, पाकिस्तान के साथ विलय नहीं। यही कारण है कि लश्कर या जैश को कश्मीर की  जनता का व्यापक समर्थन नहीं मिला। हुर्रियत के भीतर भी पाकिस्तान के साथ विलय के समर्थक केवल सैयद अली शाह गिलानी हैं। गिलानी  साहब ने 2014 में कश्मीर के अवाम से बार-बार चुनाव बहिष्कार की  अपील की। हुर्रियत के दूसरे नेताओं ने भी इसका समर्थन  किया। बावजूद इसके, इस चुनाव में मतदाताओं का प्रतिशत सब से ज्यादा  रहा। साफ जाहिर है कि हुर्रियत कश्मीर की जनता का सार्वकालिक  प्रतिनिधि नहीं है। वह कश्मीर की जनता से किए अपने वादे पूरे नहीं  कर सकी। इसी कारण किसी जमाने में लोकप्रिय रहे उसके सभी नेता एक-एक कर अप्रासंगिक होते गए। वर्तमान अशांति के समय जनता  भले ही हुर्रियत नेताओं द्वारा जारी कैलेंडर का पालन कर रही हो, यह  अभूतपूर्व दमन के सामने प्रतिरोध को टिकाए रखने की भावना के कारण है, हुर्रियत नेताओं की अपील के कारण नहीं।

कहा गया कि चुनावों में भागीदारी का मतलब यह नहीं है कि कश्मीर के लोगों ने भारत के संविधान को मंजूर कर लिया है। यह ठीक है, लेकिन इतना तो है  कि कश्मीर के मतदाता ने भारतीय राज्य से  कुछ उम्मीद लगाई थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लेखक राकेश कुमार सिन्हा एक  राष्ट्रीय चैनल पर कहते सुने गए कि कश्मीर समस्या की  मूल  वजह  मस्जिदों में दी जाने वाली कट्टरतावादी तकरीरें हैं। उन्होंने रोज़गार के  अभाव, विकास की धीमी गति और मानवाधिकारों की दुर्दशा जैसे  कारकों को समस्या की मूल वजह बताने का जोरदार खंडन किया। उनकी इस दूसरी बात का समर्थन कश्मीर के अलगाववादी नेता भी  करते हैं। पिछले दिनों केंद्र सरकार की तरफ से कश्मीर के विकास  की लम्बी-चौड़ी योजनाओं की घोषणा की गई। प्रधानमंत्री ने बीते नौ अगस्त  को ‘भारत छोड़ो’ दिवस के अवसर पर कश्मीर में विकास का संकल्प  दुहराया। कश्मीर के लोगों को ये घोषणाएं घाव पर नमक छिडकने  जैसी लगीं। कश्मीर से उठने वाली हर आवाज यही कहती है कि कश्मीर एक  राजनीतिक समस्या है। इसके राजनीतिक चरित्र को नामंजूर करना कश्मीर में यथास्थिति बनाए रखने की उद्दंड जिद के सिवा और कुछ नहीं है।

केंद्र की भाजपा सरकार चाहे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराए या विकास की बात करे, कश्मीर की समस्या के प्रति उसका नजरिया मूलतः वही है, जो  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। यह नजरिया इसे एक धार्मिक-साम्प्रदायिक समस्या के रूप में देखता है। इनके लेखे समस्या केवल कश्मीर घाटी में है, जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं। चूंकि  मुसलमान कट्टर, अतिवादी और अलगाववादी होते हैं, इसलिए वे हिंदू  बहुसंख्या वाले देश भारत में रहना कभी पसंद नहीं करेंगे। 

धोखा-दर-धोखा  फिर क्यों विभाजन के समय कश्मीर ने भारत के साथ रहने का  विकल्प चुना था, चाहे कुछ शर्तों के साथ? यह नजरिया इस सवाल का जवाब भी नहीं दे सकता कि कश्मीर में अलगाववादी आन्दोलन विलय   के चार दशक बाद क्यों शुरू हुआ। 

कश्मीर विशेषज्ञ बलराज पुरी के अनुसार कश्मीर घाटी में  साम्प्रदायिक घटनाओं की शुरुआत फरवरी 1986 में हुई। हजारों वर्षों  के इतिहास में इसके पहले कश्मीर में कभी साम्प्रदायिक तनाव नहीं  देखा गया। कश्मीरियत शैवों, बौद्धों और सूफियों की उस मिलीजुली  संस्कृति की ओर इशारा करती है, जिसमें भिन्न धर्मों के लोग एकमन  और एकप्राण हो कर रहते आए हैं। कश्मीरियत की पहचान शिवभक्त  कवयित्री लल द्यद और उनके प्रशंसक शेख नूरुद्दीन वली से हैं, जिन्हें  कश्मीरी नुंद रिशी के नाम से जानते  हैं।

ऐसे कश्मीर में सन छियासी के आसपास अचानक साम्प्रदायिक  तनाव बढ़ना क्यों शुरू हुआ, जिसकी परिणति भारी संख्या में कश्मीरी  पंडितों के पलायन में हुई? कश्मीर में सन 1977 और 1983 में हुए   चुनाव साफ-सुथरे माने जाते हैं। इसके पहले के सारे चुनाव फर्जी थे। इस मान्यता का खंडन कोई नहीं करता। लेकिन यह भी सच है कि 1983 के चुनाव में ही जम्मू–कश्मीर की राजनीति में पहली बार  साम्प्रदायिक कार्ड खेला गया। यह  ‘शुभ कार्य’ किसी  और  के हाथों  नहीं, खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों हुआ। उन्होंने विधान सभा  द्वारा पारित पुनर्वास विधेयक का भय दिखा कर जम्मू के हिंदुओं का  ध्रुवीकरण किया। पुनर्वास विधेयक पाकिस्तान गए कश्मीरियों को  वापस  लौटने, अपनी पीछे  छूटी संपत्तियों पर दावा करने और दुबारा बस  जाने का अधिकार देने के विषय में था। इस चुनाव में जम्मू में कांग्रेस  को भरपूर वोट मिले, वैसे ही जैसे 2014 में बीजेपी को मिले। पहली  बार जम्मू और घाटी के बीच राजनीतिक सतह पर साम्प्रदायिक विभाजन देखा  गया। नेशनल  कांफ्रेंस को भी इसका लाभ हुआ। 75  में 46 सीटें जीत कर उसने सरकार बना ली।

लेकिन साल भर के भीतर ही केंद्र की कांग्रेस सरकार ने  राज्यपाल जगमोहन की मदद से फारूक अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार  गिरा  दी। केंद्र की शह पर हुए दलबदल के बाद जी एम शाह की  सरकार बनी। जनाधार–विहीन शाह सरकार ने इंदिरा गांधी के दिखाए  रास्ते पर चलते हुए जम्मू में हिंदुओं और घाटी में मुसलमानों की  धार्मिक भावनाओं को भुनाने की भरपूर कोशिश की। सन 86 में  अनंतनाग में हुई साम्प्रदायिक घटनाओं की जांच करने वाले बलराज   पुरी का निष्कर्ष था कि ये घटनाएं स्वतःस्फूर्त नहीं, राजनीतिक  षड्यंत्र  का परिणाम थीं। प्रवीन दोंथी ने कश्मीरी पत्रकार युसूफ जमील के हवाले  से लिखा है कि अनंतनाग की घटनाओं के पीछे तब के वरिष्ठतम कांग्रेसी नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद का हाथ हो सकता है, जो शाह  सरकार से छुटकारा पा कर खुद मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। अनंतनाग उनका अपना इलाका था।  

चतुर्दिक फैली अराजकता के बहाने हुए कुछ समय बाद ही यह  सरकार भी बर्खास्त कर दी गई। आपातकाल के दौरान ‘तुर्कमान गेट के  कसाई’ के रूप में मशहूर हुए जगमोहन अब सर्वाधिकार-सम्पन्न हो  गए।
 

राज्यपाल जगमोहन ने कई ऐसे फैसले लिए, जिनकी वज़ह से    घाटी का बिगड़ता साम्प्रदायिक माहौल और ज्यादा बिगड़ गया। उन्होंने राज्य सरकार की सब-ऑर्डीनेट सेवाओं के आरक्षण के नियमों में कुछ ऐसे बदलाव किए, जिनसे इन सेवाओं में मुसलमानों के चयन का  प्रतिशत घट कर आधा रह गया। हिंदू त्योहारों के दिन मांस की बिक्री  पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जगमोहन की अनुशंसा पर भारतीय  संविधान की धारा 249 को कश्मीर पर लागू कर दिया गया, जिससे  भारतीय संसद को कश्मीर में राज्य सूची के विषयों पर  क़ानून  बनाने  का अधिकार मिल गया। यह अनुशंसा उन्होंने जम्मू-कश्मीर की  संविधान सभा के अधिकारों का इस्तेमाल करते हुई की। राज्यपाल या  जमू-कश्मीर की सरकार को ऐसा करने का अधिकार है या नहीं, इस  बारे में गहरे संशय हैं, क्योंकि संविधान सभा भंग की जा चुकी है। जगमोहन ने धारा 370 को समाप्त करने के अपने इरादे को भी कभी छुपाया नहीं। जिन कारणों से जगमोहन घाटी में अलोकप्रिय होते गए, उन्हीं कारणों से जम्मू में उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। 

अब तक फारूक अब्दुल्ला की समझ में आ गया था कि केंद्र से  पंगा लेने का मतलब सत्ता से बेदखल रहना होगा। उन्होंने राजीव गांधी  के साथ समझौता कर लिया और कांग्रेस पार्टी के साथ गंठबंधन कर  1987 का चुनाव लड़ने  को राजी हो  गए।

घटनाओं के इस सिलसिले से साफ ज़ाहिर है कि कश्मीर की जनता ने जिस किसी पर भरोसा किया, उसी ने उसके साथ  विश्वासघात  किया। जवाहरलाल  नेहरू  ने, शेख अब्दुल्ला  ने, इंदिरा गांधी  ने, फारूक अब्दुल्ला ने, राजीव  गांधी  ने।

जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत  कश्मीरियों के मन में पाकिस्तान से बढ़ कर भारत का आकर्षण  तीन चीजों के लिए था। उन्हें गांधी और नेहरू के देश भारत से  लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवहार की, कश्मीरियत की गरिमा की रक्षा की और मानवीय सम्वेदनशीलता की उम्मीद थी। राजनीतिक इस्लाम की बुनियाद पर खड़े पाकिस्तान से उन्हें इन  चीजों की आशा नहीं थी।  इन तीन चीजों को जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत के रूप में सूत्रबद्ध करके अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीरियों का दिल जीत लिया था। आज भी इन्हें नारे की तरह दुहराया तो जाता है, लेकिन इनके  निहितार्थों पर  बहस  नहीं  होने  दी जाती।

लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवहार में फिर तीन चीजें शामिल थीं – आत्मनिर्णय का अधिकार, स्वायत्तता और चुनावी जनतंत्र। इन्ही बातों के  लिए जनमत संग्रह और धारा 370 को विलय का आधार बनाया  गया था। उस समय प्रत्येक हिस्सेदार को पूरा भरोसा था कि जनमत संग्रह में कश्मीर की जनता भारत का पक्ष चुनेगी। जाहिरा तौर पर जनमत संग्रह की बात यह सोच कर नहीं रखी गई थी कि इसके सहारे  कश्मीर आजाद हो जाएगा। उस वक्त कश्मीर की जनता को सूबे की  आजादी नहीं चाहिए थी। अगर चाहिए होती, तो वह कभी विलय के  पक्षधर शेख अब्दुल्ला के साथ नहीं खडी होती। उस समय वह इतना ही   चाहती थी कि आत्म-निर्णय के उसके अधिकार का सम्मान किया जाए।

वह प्यार के लिए बेशक राजी थी, पर चाहती थी कि उसकी राजी  पूछी जाए!

लेकिन भारतीय राज्य ने इन तमाम उम्मीदों को नेस्तनाबूद किया। कश्मीरी अवाम के सब से मकबूल नेता शेख अब्दुल्ला को लगभग दस वर्षों तक जेल में रखा गया। उन्हें तभी छोड़ा गया जब उन्होंने नेहरू के  साथ यह समझौता कर लिया कि वे कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय का सवाल नहीं उठाएंगे। इस तरह भारत ने कश्मीरियों को निहायत बेअदबी  से यह बताया कि न केवल उनकी राजी नहीं पूछी जाएगी, उन्हें  राजीनामे की बात करने तक की इजाजत नहीं  दी जाएगी। 

कश्मीरी अवाम ने भले भारत पर भरोसा किया हो, भारतीय  राज्य ने कश्मीरियों पर भरोसा नहीं किया। स्वतंत्र और स्वच्छ चुनाव नहीं होने दिए गए। विपक्ष को पनपने नहीं दिया गया। लोकतांत्रिक वातावरण  बनने नहीं दिया गया। 1977 और 1983 के चुनाव जरूर साफ–सुथरे  थे, लेकिन तिरासी के चुनावों पर इंदिरा गांधी की साम्प्रदायिक राजनीति  की छाया मंडरा रही थी। रही धारा 370 के आधार पर मिली  स्वायत्तता, तो वह भी कठपुतली राज्य सरकारों और नामांकित  राज्यपालों की मदद से क्रमशः कमजोर की जाती रही।  

कश्मीरी अस्मिता के मायने कश्मीरियत के भी  तीन  पहलू  हैं - कश्मीरी अस्मिता, साझी संस्कृति और धर्म–निरपेक्षता।

धारा 370 का महत्त्व स्वायत्तता से भी ज्यादा कश्मीरियत की  रक्षा के लिए है। कश्मीरी लोग अपनी कश्मीरी अस्मिता से प्यार करते  हैं। मुगलों से ले कर डोगरा राजाओं तक से उनका संघर्ष कश्मीरी  अस्मिता की रक्षा के लिए होता रहा है, धार्मिक-साम्प्रदायिक कारणों से  नहीं।

लेकिन भारत में एक प्रभावशाली राजनीतिक वर्ग लागू होने के दिन  से ही धारा 370 को समाप्त करने का अभियान चलाता रहा है। इस  वर्ग को शायद यह उम्मीद है कि इस धारा के समाप्त होने के बाद  बाहरी आबादियों को बसा कर जनसंख्या परिवर्तन के माध्यम से  कश्मीर समस्या को हल किया जा सकता  है। पाकिस्तान ने अधिकृत  कश्मीर में यही करने की कोशिश की है। अधिकृत कश्मीर का  जनसांख्यिक और सांस्कृतिक चरित्र कश्मीर घाटी से भिन्न है। कश्मीरियत के लिए जैसा आग्रह घाटी में है, वैसा उसके बाहर नहीं है।  कश्मीरियत के दो आयाम हैं - साझी संस्कृति और कश्मीरी अस्मिता।  इतिहास दिखाता है कि कश्मीरी अवाम ने कभी किसी को अपनी  अस्मिता के साथ छेड़छाड़ की इजाजत नहीं दी है। इतिहास घुल-मिल   कर रहने और साझेपन की संस्कृति विकसित करने की उनकी क्षमता    भी उद्घाटित करता है।

मानवीय सम्वेदनशीलता, मानवतावाद या इंसानियत कश्मीरी  संस्कृति की अंतरात्मा  है। यह लल द्यद की कविता और नुंद रिशी के  सूफी अध्यात्म की विरासत है। कश्मीरी मनुष्य से, जीवन से और  प्रकृति से प्यार करने वाले  लोग हैं। पिछले कुछ दशकों को छोड़ दें तो कश्मीर में हिंसा के लम्बे दौर का कोई इतिहास नहीं है। लेकिन भारत  से जुड़ते ही उन्हें गिरफ्तारी, कर्फ्यू और राज्य दमन के वातावरण का सामना करना पड़ा।

ऐसे हुई आतंकवाद की शुरुआत 1987 आते–आते कश्मीर की जनता हर कोण से खुद को ठगा  हुआ महसूस करने लगी थी। उसकी हर एक उम्मीद तोड़ी गई थी, हर  भरोसे को नेस्तनाबूद  किया गया था। आत्मनिर्णय के अधिकार और  लोकतंत्र की बात क्या, उसे भारत की धर्म–निरपेक्षता तक का भरोसा नहीं रह गया। राज्य और केंद्र की सभी स्थापित पार्टियों से निराश उसने  लोकतंत्र पर आखिरी दांव लगाया। अनेक असंतुष्ट समूहों के ढीलेढाले मोर्चे ‘मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट’ को 1987 के चुनावों में कश्मीरी अवाम का भरपूर समर्थन मिला। कहते हैं,  इन चुनावों में धांधली इस हद तक  हुई कि सत्ताधारी गंठबंधन के खिलाफ लड़ कर जीते हुए उम्मीदवारों  को भी हारा हुआ घोषित कर दिया गया। जीत कर भी हराए गए इन्हीं  उम्मीदवारों में एक थे मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के प्रमुख नेता - सैयद यूसुफ शाह, जिन्होंने आगे चल कर सय्यद सलाहुद्दीन के नाम से हिज्बुल मुजाहिदीन की कमान सम्हाली। शाह के चुनाव प्रबंधक थे यासीन मलिक, जिन्होंने  जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का गठन किया। लोकतंत्र से पूरी तरह नाउम्मीद हो कर बहुत-से असंतुष्ट युवा  आतंकवाद के जाल  में  फंस  गए।

1987 के विफल चुनावों ने कश्मीर में आतंकवाद का अध्याय शुरू कर दिया।

नब्बे का दशक आतंकवाद और उसके सैन्य दमन का दशक है। 1991 में हुए कुनान पोश्पोरा के कथित मास रेप के बाद सैन्य  अतिरेकों के हैरतअंगेज आरोप लगते रहे हैं। कश्मीर में इस दशक में मारे गए लोगों और गायब हो गए लोगों की संख्या लाखों में बताई  जाती है।

जिस किसी को कश्मीर के इस  इतिहास  का तनिक भी अंदाजा होगा, उसे यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कश्मीर का संकट न तो  इस्लाम के कारण है, न ही पाकिस्तान के कारण। उसका एकमात्र  कारण है कश्मीर में भारतीय लोकतंत्र की सम्पूर्ण विफलता। राजनेताओं  द्वारा पाकिस्तान को जिम्मेवार ठहराने के दो उद्देश्य हो सकते हैं। एक, देश की जनता को कश्मीर के विषय में अंधेरे में रखना और  पाकिस्तान विरोधी उन्माद भड़का कर सस्ता जन समर्थन हासिल  करना। दो, कश्मीर की जनता को यह संदेश देना कि कश्मीर के दर्द  को समझने  में भारतीय राज्य की कोई रुचि नहीं है। वह फर्जी लोकतंत्र के सहारे केवल फौजी ताकत के बूते कश्मीर पर कब्जा बनाए रखेगा।

रास्ता इधर से है 
नब्बे-बाद के आतंकवादी आन्दोलन के पराभव के बाद कश्मीर बेचैनी से  ‘सामान्य स्थिति’  की तलाश में था। इस तलाश को 2013 में अफजल  गुरु की फांसी से गहरा आघात पहुंचा। कश्मीर के लोगों को अफजल  की मौत से भी ज्यादा आघात फांसी के तरीके से पहुंचा। अफजल के  परिवार को न तो पूर्वसूचना दी गई, न मिट्टी सौंपी गई। कश्मीर के  लोग अफजल को एक प्रतिबद्ध आतंकवादी के रूप में नहीं देखते। अफजल के मुकदमे की प्रक्रिया पर उन्हें पूरा भरोसा नहीं  है, क्योंकि  उसे कोई सक्षम वकील नहीं  मिला, उसके साथ के आरोपित निर्दोष  पाए गए और उसकी सजा ‘परिस्थितिगत साक्ष्यों’ पर आधारित थी। अफजल के मुद्दे ने कश्मीरी जनमानस को गहराई से आंदोलित किया, लेकिन उसके प्रति भारतीय राज्य और समाज  का रुख ठंढा पड़ा रहा। दूसरे राज्यों में अनेक  दोषसिद्ध आतंकियों को छोड़ा गया है, उनकी  सजाएं कम की गई हैं, उनसे वार्ताएं हुई  हैं, उन्हें सम्मानित तक  किया गया है। लेकिन अफजल की मिट्टी सौंपने की नितांत मानवीय  मांग की भी अनसुनी की गई। इस अनसुनेपन की इंतहा यह है कि  इस  साल जब जेएनयू में कुछ छात्रों  ने अफजल की फांसी के मुद्दे पर  चर्चा  आयोजित की तो राष्ट्रीय ज्यूज चैनलों ने इसे देशद्रोह का मामला बना  कर महीनों तक हंगामा बरपा किया।

इस रवैए से भी कश्मीर घाटी को संदेश यह मिला कि भारतीय  राज्य और समाज उनकी भावनाओं के प्रति किंचित भी सम्वेदनशीलता बरतने को तैयार नहीं है। गहरी चोट खाई इन्हीं भावनाओं को सहला  कर 2014 के चुनावों में पीडीपी ने घाटी में जबर्दस्त सफलता पाई। इस  जनाधार को बचाने  के लिए ही सरकार में आने के बाद उसने  भूतपूर्व  आतंकियों की रिहाई की प्रक्रिया शुरू कीथी, जिससे कश्मीर में सरकार  की सद्भावना के प्रति लोगों में भरोसा पैदा होना शुरू हुआ था। लेकिन  सरकार की साझीदार बीजेपी ने इसे आतंकवाद के प्रति समर्पण के  रूप में देखा। पीडीपी पर कदम वापस खींचने का भरपूर दबाव बनाया  गया। भरोसे की दुबली-सी किरण भी छिन्न –भिन्न हो गई। इसके बाद  भी कोई कसर रह गई हो तो उसे बुरहान वानी के आकस्मिक अंत ने  पूरा कर दिया। बुरहान सक्रिय आतंकी होने  से ज्यादा एक पोस्टर बॉय था, जो कश्मीर की दमित भावनाओं की वाणी बन गया था। उसकी  सक्रियता सब से ज्यादा सोशल मीडिया पर थी। उस पर पुलिस की निगाह थी। उसे गिरफ्तार करने में पुलिस की असफलता और मुठभेड़  में उसकी मृत्यु ने कश्मीर के बरसों से पकते गहरे घावों को भीतर  तक उद्वेलित कर दिया।

आज  की परिस्थिति में सब से अधिक आसान यह मान लेना है  कि सत्तर वर्षों से विश्वासघात, दमन और अपमान झेल रही कश्मीर  की जनता अब किसी भी कीमत पर भारत के साथ नहीं रहना चाहेगी। इसलिए भारत के पास कश्मीर को आजाद कर देने (जिसके लिए देश  की जनता अभी तैयार नहीं है) या  फिर, जब तक रख सकें, सैन्य  नियंत्रण में रखने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। राजनेताओं के  लिए  यह सुविधाजनक भी है, क्योंकि कश्मीर में पुट्ठे चमकाते रहने से बाकी देश का ध्यान जरूरी मुद्दों से हटाने और भावनात्मक उबाल पैदा करना  सब से आसान  हो जाता है।

लेकिन ऊपर हम देख चुके हैं कि कश्मीर में यथास्थिति का बने  रहना खुद भारतीय लोकतंत्र के लिए संकट पैदा करता है। देश के एक  हिस्से में लोकतंत्र का दमन कर बाकी हिस्सों में भी उसे लम्बे समय तक बचा कर नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा, कश्मीर का संकट  भारत के लिए एक नैतिक संकट भी है। यह देश के नैतिक  आत्मविश्वास को खोखला करता लजाता है।

यह भी स्पष्ट है कि यथास्थिति हमेशा नहीं बनी रहेगी। कोई  यथास्थिति स्थायी नहीं होती। लेकिन यह जब तक रहेगी, कश्मीर का  भारत के साथ रहना उतना ही कठिन होता जाएगा।

अगर हम कश्मीर को बचाना चाहते हैं तो परिस्थिति की गंभीरता पर तकाल ध्यान देना होगा और कुछ साहसिक कदम उठाने होंगे।

आजादी इंसान की बुनियादी जरूरत है। आज़ादी गंवा कर मनुष्यता  की गरिमा नहीं बचाई जा सकती। मनुष्यता का सारा  इतिहास आजादी  के लिए मनुष्य के महान संघर्ष की कहानी है। लेकिन आजादी की  सब से  ठोस और व्यावहारिक शक्ल जो इंसान ईजाद कर पाया है, वह है  -लोकतंत्र।

लोकतंत्र को त्याग कर आजादी के जितने प्रयोग आज तक किए  गए हैं, वे सब औंधे मुंह गिरे हैं। भारतीय संघ अगर इतनी सारी  राष्ट्रीयताओं (नेशनैलिटीज) को अपने साथ जोड़ कर रख पाया है तो  केवल लोकतंत्र के बूते। अलगाववादी आन्दोलन उन्हीं  इलाकों में हैं, जहां लोकतंत्र  के साथ समझौते किए गए।

सत्तर सालों में भारतीय लोकतंत्र पर कश्मीरी अवाम का भरोसा टूट चुका है। क्या इस भरोसे को फिर से बहाल किया जा सकता है?

भरोसा बहाल करने की पहली शर्त है भरोसा करना।

क्या भारतीय राज्य और भारत के लोग कश्मीरी अवाम को यह  भरोसा दे सकते हैं कि वे उस पर भरोसा करते हैं?

यह तभी सम्भव है जब हम साबित करें कि कश्मीर की अस्मिता, स्वायत्तता और आजादी का सम्मान करते हैं। इसके लिए हमें कश्मीर  में वे आजादियां तत्काल बहाल करनी होंगी, जो शेष भारत की जनता  को हासिल हैं। हाल ही में शहीद चंद्रशेखर आजाद के गाँव भाबरा से देश  को सम्बोधित करते हुए  प्रधानमंत्री ने दावा किया कि कश्मीर को ये  आजादियां पहले से हासिल हैं।

क्या भारत साबित कर सकता है कि यह दावा महज एक जुमला नहीं है?

क्या हम कश्मीरियों की अभिव्यक्ति की आजादी बहाल कर सकते हैं? क्या हम कह सकते हैं कि चाहे वे आजादी की मांग करें या  पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाएं, हम उनकी अभिव्यक्ति पर रोक  नहीं लगाएंगे - चाहे  हम  उनसे लाख असहमत हों?

अगर हम कश्मीरियों को यह आजादी नहीं दे सकते, तो शेष  भारत से भी इसे छीनना पड़ेगा। आज क्या ठीक यही नहीं हो रहा  है?

दुनिया का कोई भी लोकतांत्रिक देश अलगाववादी नारे लगाने, भाषण देने या किताबें लिखने पर रोक नहीं लगाता। अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक से अलगाववाद को बढ़ावा मिलता है, आजादी से नहीं।

अभिव्यक्ति की आजादी के बिना कोई बातचीत शुरू नहीं हो  सकती। आजादी के बिना एकालाप हो सकता है, संवाद नहीं।

कश्मीर के साथ संवाद की अब तक की सारी कोशिशें इसलिए  विफल हो गईं कि दोनों पक्ष प्रस्थान विंदु पर ही सहमत नहीं हैं। भारत  का प्रस्थान विंदु है -  कश्मीर  भारत  का अटूट  अंग  है। कश्मीर  के  सभी हिस्सेदार इससे  सहमत  नहीं  हैं।

कोई बातचीत तभी हो सकती है, जब भारतीय पक्ष अपनी बात  कहते हुए दूसरे पक्ष की बात भी सुनने को तैयार हो। अगर हम कहें  कि बात करना तो दूर, हम आप की बात सुनने को भी तैयार नहीं हैं, तो क्या बातचीत होगी?
क्या हम कश्मीरियों को भरोसा दे सकते हैं कि हम उनकी बात  सुनने, समझने और उस पर बहस करने को तैयार हैं? क्या हम कह सकते  हैं कि हम कश्मीर के भारत का  अटूट अंग होने के सिद्धांत पर  दृढ़  हैं, लेकिन इसे तर्क और प्रमाण से सिद्ध करेंगे, फौजी ताकत से  नहीं? और, बदले में उनसे भी हम यही उम्मीद करते हैं कि वे तर्क और  प्रमाण से बात करें, पत्थरों से नहीं।

लोकतंत्र के दो बुनियादी आशय हैं - अभिव्यक्ति की आजादी और  शर्त–हीन मुक्त बातचीत। जैसे ही हम इन दो बातों को स्वीकार कर  लेंगे, लोकतंत्र की स्पिरिट बहाल हो जाएगी।

संवाद शुरू हो जाएगा। यथास्थिति टूटेगी। समाधान के नए रचनात्मक रास्ते खुलने लगेंगे।

इसके लिए भारत की सम्प्रभुता के साथ समझौता करने की जरूरत नहीं है। उलटे लोकतांत्रिक पुनर्रचना की यह प्रक्रिया भारत  की सम्प्रभुता  और लोकतंत्र को अधिक मजबूत बनाएगी।

क्या यह दलित विद्रोह की भूमिका है : अलख निरंजन

अलख निरंजन
आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं से अखबारों के पृष्ठ भरे रहते हैं। इनमें से कुछ घटनाएं राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में अपना स्थान भी बना लेती हैं लेकिन विचार-विमर्श से ज्यादा इन घटनाओं का कोई असर दिखाई नहीं देता है। उना में हुई दलित उत्पीड़न की यह सम्भवतः पहली घटना है, जिसके ताप ने किसी मुख्यमन्त्री को अपने पद से हटने के लिए मजबूर कर दिया।

11 जुलाई 2016 को उना (गुजरात) में दलित युवकों को नंगा कर बर्बरतापूर्वक पीटा गया तथा एसयूबी गाड़ी के पीछे बांध कर कस्बे में घुमाया गया। पीड़ित दलित युवक एक मृत गाय को खाल उतारने के लिए ले जा रहे थे। लगभग 40 की संख्या में सवर्णों ने दलित युवकों को गो-हत्या का आरोप लगा कर न केवल बर्बरतापूर्वक पीटा, बल्कि पिटाई की घटना का वीडियो बना कर पोस्ट भी कर दिया, ताकि उनके ‘शौर्य’ का व्यापक प्रचार हो सके। लेकिन सवर्ण युवकों का यह दांव उल्टा पड़ गया। इस वीडियो को देश भर के दलित संगठनों ने देखा तथा पूरे देश में विरोध दर्ज किया। वीडियो वायरल होने के तुरन्त बाद गुजरात में विभिन्न दलित संगठनों द्वारा प्रदर्शन शुरू हो गया। दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में तीन ट्रक मरे हुए पशुओं को जिला अधिकारी कार्यालय के परिसर में फेंक दिया गया तथा एलान किया गया कि गो रक्षक अपनी मां का अन्तिम संस्कार स्वयं करें। नालियों की सफाई बन्द कर दी गई। गांव-गांव से भी मरे हुए पशुओं को उठाना बन्द कर दिया गया। इसी क्रम में 31 जुलाई को अहमदाबाद में दलित महासम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में लगभग 25 हजार दलितों ने शिरकत की। इसमें बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर की शपथ ले कर मृत पशुओं को न उठाने तथा सीवर में घुस कर सफाई न करने का संकल्प लिया गया। 5 अगस्त से अहमदाबाद से दलित अस्मिता यात्रा निकाली गई जो 15 अगस्त को उना में जा कर सम्पन्न हुई, जहां पर दलित स्वतन्त्रता दिवस मनाया गया। इसमें जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार व रोहित वेमुला की मां राधिका देवी भी सम्मिलित हुईं।
 

उना दलित उत्पीड़न की इस घटना का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि यह घटना यशस्वी प्रधानमंत्री, जो खुद को प्रधान सेवक कहते हैं, के गृह राज्य गुजरात में घटी है। उस गुजरात में जिसे नरेन्द्र मोदी ने विकास के माडल के रूप में प्रस्तुत कर 2014 में लोक सभा का चुनाव लड़ा तथा प्रधानमंत्री बने, जिसे  हिन्दुत्व की प्रयोगशाला कहते हैं। विकास के इसी माडल को पूरे देश में स्थापित करने के लिए संघ परिवार आतुर है। लेकिन उना की घटना के पश्चात पूरे देश में हुए विरोध प्रदर्शनों से स्पष्ट है कि भारत के दलितों ने प्रधानमंत्री के विकास माडल को न केवल नकार दिया है, बल्कि अब वे ऐसे खोखले माडल को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। लगभग 20 से अधिक दलितों द्वारा आत्महत्या का प्रयास, जिनमें से एक की मृत्यु 31 जुलाई को हो गई, सिद्ध करता है कि दलित अब अत्याचार सहन नहीं करेगा; यदि उत्पीड़न से मुक्ति प्राप्त करने का कोई रास्ता उसके सामने नहीं है तो वह मौत को गले लगा लेगा। वास्तव में सवर्णों ने दलित उत्पीड़न के लिए एक नए हथियार का आविष्कार किया है। आम तौर पर दलितों का उत्पीड़न तब किया जाता था जब वे वर्ण व्यवस्था द्वारा निर्धारित कार्यों के इतर कोई कार्य करते थे या वर्ण व्यवस्था द्वारा निर्धारित कार्य करने से इंकार करते थे जैसे मरे हुए पशुओं को उठाना, सफाई का कार्य न करना आदि। मृत मवेशियों का निस्तारण वर्ण व्यवस्था द्वारा निर्धारित कार्य है। ऐसे में दलितों पर गोहत्या का बेबुनियादी आरोप लगा कर उनकी बर्बर पिटाई करना उत्पीड़न करने का बिल्कुल नया बहाना है। उना घटना से पूर्व 2002 में भी झज्जर (हरियाणा) में सवर्णों की भीड़ ने पांच दलितों को गोहत्या के आरोप में थाने के सामने बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया था। उस समय केन्द्र में संघ के ही सेवक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।

दलितों की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का 16.6 प्रतिशत अर्थात लगभग 21 करोड़ है। लेकिन 70 वर्षों की आजादी ने इनकी आकांक्षाओं को कौन कहे, आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं किया। इन 70 वर्षों में कई रंग की सरकारें आईं और गईं, लेकिन वे दलितों के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पाईं। आंकड़े बताते हैं कि देश में 45 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं तथा गरीबी रेखा के नीचे हैं, 55 प्रतिशत दलित खेत मजदूर हैं। 84 प्रतिशत दलित परिवारों (5 व्यक्ति) की मासिक आमदनी 5000 रु. से भी कम है, 75 प्रतिशत से अधिक दलितों की आबादी गांवों में निवास करती है। दलितों के 53.6 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। 34 प्रतिशत दलित अनपढ़ हैं। दलितों के साथ भेदभाव अभी भी जारी है। 2010 में हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि दलितों के साथ 98 प्रकार का भेदभाव किया जाता है। जैसे साथ में बैठ कर खाना न खाना, जातिसूचक गाली देना, सार्वजनिक दुकानों पर चाय का कप अलग रखना, स्कूल में दलित बच्चों को अलग बैठाना आदि। दलित उत्पीड़न की घटनाएं भी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं।  एनसीआरबी के अनुसार दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। 2010 में 32,712, 2011 में 33,719, 2012 में 33,655, 2013 में 39,408 व 2014 में 47,064 मामले पंजीकृत किए गए। 2015 में अभी तक जो आंकड़े प्राप्त हैं उनके अनुसार 54,355 मामले पंजीकृत किए गए हैं। दलित उत्पीड़न के मामले में गुजरात की वृद्धि दर चौंकाने वाली है। गुजरात, जहां 2013 में 1190 एवं 2014 में 1130 मामले दलित उत्पीड़न के दर्ज किए गए थे, वहीं पर 2015 में 6655 मामले दर्ज किए गए हैं जो पिछले वर्ष की तुलना में पांच गुना से भी अधिक है।

आंकड़ों से स्पष्ट है कि दलितों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। देश में 44 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं। भूमिहीन होने का अर्थ हैं दलितों के पास घर बनाने की भी जमीन न होना। इनके घर भी सरकार द्वारा दी गई जमीन पर या किसी सवर्ण की जमीन पर बने होंगे या घर ही नहीं होगा। सड़क या ग्राम सभा की जमीन पर टेन्ट या छप्पर डाल कर रहते होंगे। 83 प्रतिशत परिवार मासिक 5000 रुपए से कम पर गुजारा करते हैं। एक परिवार में व्यक्तियों की संख्या को पांच मानी गई है। अर्थात 83 प्रतिशत दलित भर पेट भोजन भी नहीं कर पाते हैं। दलित उत्पीड़न के आंकड़ों से स्पष्ट है कि भारतीय समाज, जिसमें सवर्णों का प्रभुत्व स्थापित है, दलितों को मनुष्य के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है। दलितों को पीटना, दलित महिलाओं का बलात्कार, हत्या जैसी बर्बर और अमानवीय घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। दलितों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का कोई डर सवर्णों के मन में नहीं है। 1990 तक सरकारी नौकरियों के माध्यम से दलितों के एक बहुत छोटे हिस्से को सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर उपलब्ध हो जाता था। लेकिन 1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीति के कारण सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की संख्या में भारी गिरावट आई। निजी क्षेत्र दलितों को नौकरियों में आरक्षण देने को तैयार नहीं है। अर्थात स्वतन्त्र भारत में आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा सामाजिक सम्मान के साथ जीवन जीने का एकमात्र मार्ग ‘सरकारी नौकरी भी दलितों के लिए अब उपलब्ध नहीं है। इन परिस्थितियों में दलित किंकर्त्तव्यविमूढ़ की स्थिति में खड़ा है।

उना की घटना के पश्चात दलितों के बीच से उभरा आन्दोलन भारत की वर्तमान समाज व राजव्यवस्था के प्रति दलित आक्रोश की अभिव्यक्ति है। इस आक्रोश को पूरे देश में देखा जा सकता है। भले ही इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न हो। उत्तर प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण समाप्त होने के कारण लाखों दलितों को पदावनति का दंश झेलना पड़ा है। इसके विरोध में दलित कर्मचारियों तथा अधिकारियों  ने सड़क से ले कर सर्वोच्च न्यायालय तक संघर्ष किया। राज्य सभा से दो वर्ष पूर्व पारित 117वां संविधान संशोधन बिल लोक सभा में लम्बित है। यदि यह पास नहीं होता है तो पूरे देश के सरकारी कर्मचारी पदोन्नति में आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाएंगे तथा पदावनत भी कर दिए जाएंगे। इस सच्चाई से पूरे देश के दलित कर्मचारी भयभीत हैं। शिक्षण संस्थाओं में भेदभाव व उत्पीड़न भी रुकने का नाम नहीं ले रहा है। रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या का दंश दलित समुदाय बहुत ही शिद्दत से महसूस कर रहा है।

दलित उत्पीड़न एवं भेदभाव की घटनाएं और इनकी प्रतिक्रिया एक व्यापक रुझान की तरफ इशारा कर रही है। पूरे देश में दलितों और सवर्णों के बीच सामाजिक संघर्ष की उपस्थिति उत्पन्न हो रही है। उना घटना के पश्चात जिस प्रकार मृत मवेशियों को जिला अधिकारी कार्यालय परिसर में फेंक दिया गया एवं सीवर में घुस कर सफाई न करने का संकल्प लिया गया, स्पष्ट है कि दलित अब उत्पीड़न सहने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ, सवर्णों के मन में दलितों के प्रति घृणा व बहिष्कार का भाव कूट-कूट कर भरा है जो अनुकूल अवसर मिलते ही बर्बर और अमानवीय घटनाओं के रूप में सामने आता है। संघ परिवार हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना चाहता है जिसमें सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तों के अनुरूप चलाई जाएगी। वर्ण व्यवस्था में दलित अपवित्र कार्य करने के लिए बाध्य होंगे और काम के बदले पारिश्रमिक मांगने का उन्हें कोई अधिकार नहीं होगा। जूठन उनका भोजन होगा। सवर्ण संघ परिवार के इसी रामराज्य में अपना स्वर्णिम भविष्य देख रहे हैं। संघ परिवार का गुजरात मॉडल और कुछ नहीं, केवल वर्ण व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है।

दलित अब वर्ण व्यवस्था के मैले को और ढोने के लिए तैयार नहीं है। वह सदियों के सन्ताप से मुक्ति चाहता है। वह रामराज्य नहीं, सन्त रैदास का बेगमपुरा, डॉ. अम्बेडकर का प्रबुद्ध भारत चाहता है। ऐसा समाज, जो स्वतन्त्रता, समानता, न्याय व बन्धुता के मानवीय मूल्यों में विश्वास करता हो, जिसमें अवसर की समानता हो, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हो। एक ऐसा वैज्ञानिक समाज, जिसमें आस्था के ऊपर तर्क, धर्म के ऊपर विज्ञान, ईश्वर के ऊपर मनुष्य की गरिमा स्थापित हो।

दलित आक्रोश की इस सच्चाई से सम्पूर्ण संघ परिवार अवगत है। मुख्यमन्त्री पद से आनन्दी बेन की छुट्टी करके दलित आक्रोश को राजनीतिक तरीके से कम करने का प्रयास किया गया है। लेकिन दलित उत्पीड़न और भेदभाव का मूल कारण सामाजिक और सांस्कृतिक है। संघ परिवार सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में गाय को छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि गाय की ही आड़ में वह मुसलमानों को ठिकाने लगाना चाहता है। इसलिए हिन्दुत्व के पैरोकारों और दलितों का टकराव निश्चित है। अब देखना यह है कि हिन्दुत्व की विरोधी गैर-दलित ताकतें अपनी भूमिका किस रूप में तय करती हैं। भारत के वातावरण में यह सवाल भी मंडरा रहा है कि क्या यह दलित विद्रोह की भूमिका है।