आकांक्षा कुमारी |
लोक गीतों की रचयिता प्राय: स्त्रियाँ ही रही हैं। जिन गीतों की रचना वह नहीं भी कर पाई हैं उनको भी धुन में स्त्रियों ने ही पिरोया है। तरह-तरह के भाव, वेदनाएँ, काल्पनिक उड़ानें, सभी कुछ ने मिलकर ‘राग’ का रूप ले लिया। यही वजह है कि लोक गीत में एक अलग तरह का भाव एवं राग देखने को मिलता है। लोक गीत ही एक ऐसा क्षेत्र रहा है जहाँ स्त्रियों ने अपने मनोभावों और अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त किया है, पर मुख्यधारा की साहित्यिक रचनाओं में तो सक्रिय स्त्री रचयिता को भी पुरुष सत्तात्मक जगत की व्याख्याओं से संदर्भित किया गया है। वहाँ उनकी उपलब्धियाँ ही नहीं, स्वयं पुरुष सत्ता के विरुद्ध उनका विद्रोह भी पुरुष की व्याख्याओं और समीक्षाओं का मोहताज रहा है। स्त्रियों को अधिकांशत: उपेक्षा का शिकार बना दिया गया है। ऐसी स्थिति में लोक गीत ही एक ऐसा क्षेत्र बच जाता है जहाँ स्त्रियों ने अपने आप को सार्थक, स्वायत्त और सच्चे ढंग से पहचानने और उस पहचान को अभिव्यक्त कर पाने का साहस किया है। स्त्रियों की इस अभिव्यक्ति में कोई बनावटीपन नहीं दिखता है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि लोक गीत की उद्भवकर्ता अधिकांशत: निरक्षर स्त्रियाँ थीं, जिन्होंने अपने मनोभावों को उसमें ढाला हैऔर उसे गाया है। असल में औरतों की दुनिया में मर्दवादी मान-मर्यादा व इज्जत, प्रतिष्ठा की जकड़नें इतनी गहरी हैं कि औरतों की इच्छाएँ ज्यादातर अतृप्त ही रह जाती हैं। यह स्थिति उनके लिए काफी कठिनाईपूर्ण होती है। स्त्री मन में कई तरह की भावनाएँ डूबती-उतरती रहती हैं। उसके मन में असीम कामनाएँ और आवाजें कैद हो जाती हैं। इसे वह नहीं निकालेगी तो वह गहरे अवसाद में चली जाएगी। इसी वजह से स्त्रियाँ कई बार उत्साहित हो जाती हैं और गारी व होरी गा लेती हैं जिससे कि उसके मन की भड़ास निकल जाती है। इसी प्रकार कभी-कभी ये काल्पनिक उड़ानें भरने लगती हैं और अपनी एक नई दुनिया बना लेती हैं।
सामूहिक पीड़ा की अभिव्यक्ति |
लोक गीतों की दुनिया अर्थात लोक गीत स्त्रियों के लिए एक ऐसा स्पेस हैं जहाँ वह निर्भीक हो कर कुछ भी कह सकती हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन लोक गीतों में स्त्रियाँ अधिकांशत: प्रकृति (वृक्ष, पक्षी, आकाश, बादल इत्यादि) से बात करती हैं, क्योंकि उन्हें यह विश्वास होता है कि प्रकृति उसकी वेदना को सुनेगी, उनके भावों को समझेगी, पर किसी से कहेगी नहीं, क्योंकि स्त्री को सबसे अधिक भय किसी से होता है तो वह है लोकोपवाद। उसे लगता है कि लोक गीत के माध्यम से वह मनुष्येतर दुनिया से संवाद स्थापित कर सकेगी और उस दुनिया में चुगलियों का कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रकृति इनके लिए एक ऐसा साधन है जिससे वह निडर होकर अपनी व्यथा बाँट सकती हैं। इस प्रकार स्त्री अपने दर्द को कुछ हलका-भी कर लेती है। यह बात भी काफी महत्वपूर्ण है कि स्त्री जाति और पक्षियों की जिंदगी में काफी समानता है, इसलिए स्त्री कभी-कभी पक्षी के साथ स्वयं की तुलना करती है। भारतीय समाज में स्त्री के जीवन में विवाह के बाद काफी बदलाव आता है। विवाह-पूर्व की सारी स्वतंत्रता छिन जाती है। उसे अपने आप को नई परिस्थिति में ढालना होता है। ऐसी स्थिति में वह अपनी तुलना पिंजड़े में बंद पक्षी से करती है। लोक गीतों के माध्यम से स्त्री अपने श्रमजनित दुखों का परिहार भी करती है। जैसे रोपाई, मँडनी, जाँत, कटनी आदि कार्य करते समय वे कोई न कोई गीत जरूर गाती हैं। ये गाने उसके श्रम या वेदना के परिहार के माध्यम बनते हैं। उसी प्रकार, बेटी की शादी के बाद विदाई और बच्चे के जन्म से संबंधित अनेक ऐसे गीत हैं जिसके माध्यम से स्त्रियाँ अपने अन्तर्मन की व्यथा को व्यक्त करती हैं। उत्तर भारत के संस्कार गीतों में इस तरह के अनगिनत गीत भरे पड़े हैं।
जैसे एक मगही गीत में गर्भवती महिला जचगी के लिए आई दाई से कहती है -
डगरिन जब मोरा होयतो बेटवा
त कान दुनो सोना देवो हे,
डगरिन जब मोरा होयतो लछमिनियाँ
पटोर पहिरायब हे
(आसन्न-प्रसवा स्त्री डगरिन से कहती है – पुत्र के जन्म पर दोनों कान में सोने का आभूषण दूँगी और बेटी होने पर साड़ी पहनाऊँगी) स्पष्ट है कि खुद गर्भवती माँ पुत्र और पुत्री में विभेद करती है। लेकिन कोई भी समझ सकता है कि यह उसकी मूल इच्छा नहीं, बल्कि पुरुष सत्ता द्वारा आरोपित इच्छा की आवर्ती अभिव्यक्ति है।
मगही के ही एक और गीत में स्त्री बेटी पैदा होने के बाद के अनुभव को बताती है कि परिवार वालों के अपेक्षा के अनुसार उसने बेटा को जन्म न दे कर एक बेटी को जन्म दिया तो उसके साथ घर के लोगों का, यहाँ तक कि उसके पति का भी, कैसा व्यवहार रहा और वह खुद को कितना अकेला महसूस कर रही थी -
हमतो जानयती राम जी बेटा देतन
बेटिए जनम देलन हे,
ललना सेहु सुनि सासु रिसिआयल
मुख नहीं बोलत हे।
ननदो मोर गरिआवे गोतिनी लुलुआवय हे
ललना सेहु सुनि स्वामी रिसिआयल
मुँह पफेरी बइठल हे।
सासु जी तरबो चटइया नहीं दिहलन
पलँग मोर छीनी लेलन हे,
ललना एक डगरिन मोर माय
से कर लागी बइठल हे।
(स्त्री ने सोचा था कि भगवान उसे पुत्र रत्न देंगे, पर जन्म हुआ कन्या रत्न का। पुत्री का जन्म सुनते ही सास ने गुस्से से मुँह फेर कर बोलना बंद कर दिया। ननदें गाली देने लगीं। जेठानी बुरा-भला कहने लगी। पति भी मुँह मोड़ कर चल दिया। प्रसव काल में एक मात्र सहयोगिनी डगरिन (दाई) माँ बन कर उसकी सेवा करती रही।)
भोजपुरी भाषा के एक गीत में एक बेटी अपने साथ होने वाले भेदभाव को ले कर सवाल उठाती है कि एक ही घर, एक ही गर्भ से जनम लेने के बाद भी सिर्फ लड़की होने की वजह से मेरे साथ ऐसा भेदभाव क्यों किया गया? लड़की अपने पिता से सवाल करती है -
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
बेटा के खेलाबेला त मोटर मँगइल अरे मोटर मँगइल
हमार बेरिया, काहे सुपली मऊनीया हमार बेरिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
बेटा के पढ़ाबेला स्कूलिया पठइल अरे स्कूलिया पठइल
हमार बेरिया, काहे चूल्हा फुकवईल हमार बेरिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
बेटा के बिआह में त पगड़ी पहिरल अरे पगड़ी पहिरल
हमार बेरिया, काहे पगड़ी उतारल हमार बेरिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
एके कोखी बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी दू रंग नीतिया
(पिताजी, आप ने दो तरह की नीति क्यों अपनाई? बेटे को खेलने के लिए मोटरगाड़ी खिलौना मँगवाया और मेरी बारी आई तो सूप-मौनी? बेटे को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा और मेरी पढ़ने की बारी आई तो चूल्हा फुँकवाया? बेटे की शादी की तो पगड़ी पहनी और जब हमारी शादी की बारी आई तो पगड़ी उतार दी? एक ही गर्भ से बेटे ने भी जन्म लिया और बेटी ने भी, फिर भी आपने दो तरह की नीति क्यों अपनाई?)
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
बेटा के खेलाबेला त मोटर मँगइल अरे मोटर मँगइल
हमार बेरिया, काहे सुपली मऊनीया हमार बेरिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
बेटा के पढ़ाबेला स्कूलिया पठइल अरे स्कूलिया पठइल
हमार बेरिया, काहे चूल्हा फुकवईल हमार बेरिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
बेटा के बिआह में त पगड़ी पहिरल अरे पगड़ी पहिरल
हमार बेरिया, काहे पगड़ी उतारल हमार बेरिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी
दू रंग नीतिया
एके कोखी बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दू रंग नीतिया
काहे कइल हो बाबू जी दू रंग नीतिया
(पिताजी, आप ने दो तरह की नीति क्यों अपनाई? बेटे को खेलने के लिए मोटरगाड़ी खिलौना मँगवाया और मेरी बारी आई तो सूप-मौनी? बेटे को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा और मेरी पढ़ने की बारी आई तो चूल्हा फुँकवाया? बेटे की शादी की तो पगड़ी पहनी और जब हमारी शादी की बारी आई तो पगड़ी उतार दी? एक ही गर्भ से बेटे ने भी जन्म लिया और बेटी ने भी, फिर भी आपने दो तरह की नीति क्यों अपनाई?)
अवधी भाषा के एक गीत में लड़की अपनी माता से सवाल करती है कि एक ही गर्भ से पैदा होने के बाद भी हमारे साथ भेदभाव क्यों किया जाता है?
मोह न छोड़्यो मोर महतारी
एक कोखि के भैया बहिनिया
एकहि दूध पियायो महतारी
भैया के भए बाजै अनद बधैया
हमरे भए काहे रोयो महतारी ?
भैया का दिह्यो मैया लाली चौपरिया
हमका दिह्यो परदेस महतारी
सँकरी गलिय होइके डोला जो निकरा
छूटा आपन देस महतारी
बेटा के जनम में त सोहर गवइल अरे सोहर गवइल
हमार बेरिया, काहे मातम मनइल हमार बेरिया
(मुझे मत छोड़ना, माँ। एक ही गर्भ से हैं हम भाई-बहन, फिर भी तुमने एक को ही दूध पिलाया। भाई के जन्म पर बहुत बधाई आई और उत्सव मने, पर मेरे जन्म पर क्यों रोई? भाई को बहुत कुछ मिला घर का, मुझे परदेस क्यों मिला ? जब मेरी डोली निकली (बिदाई) तो मुझसे हमारा देश (मायका) तक छूट गया? बेटे के जन्म पर सोहर गाया गया और बेटी के जन्म पर मातम क्यों मनाया गया?)
इन तमाम उदाहरणों के जरिये यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र, मगध से ले कर अवध तक, में जेंडर के आधार पर होनेवाले भेदभाव को ले कर कमोबेश एक जैसा सोच झलकता है और यहाँ बोली जानेवाली लगभग हर भाषा में इस तरह के गीत मिलते हैं, जिनमें स्त्रियाँ अलग-अलग तरह से अपनी अभिव्यक्ति करती हैं, अपने साथ होनेवाले भेदभाव पर सवाल उठाती हैं।
यह काफी सोचनीय विषय है कि उदारीकरण और बाजारीकरण के मूल्यों ने समाज और राजनीति के स्तर पर संरचनाओं में काफी परिवर्तन किया है। लोक संस्कृति का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। पारंपरिक लोक गीत एक प्रकार से गायब होते जा रहे हैं। अब इस क्षेत्र में भी, जो आदि काल से स्त्रियों के लिए एक स्पेस था, उस पर बाजार की नजर टिकी हुई है, जिसने स्त्री को उसकी पारंपरिक जमीन से विस्थापित कर दिया है। यह स्थिति किसी एक संस्कृति में नहीं है, बल्कि हर संस्कृति में, चाहे वह भोजपुरी हो या मैथिली हो या फिर अवधी, बुंदेली एवं मगधी, हर लोक संस्कृति में है। यह भी कहा जा सकता है कि लोक गीत और लोक साहित्य किसी भी समाज में दमित आवाजों की अभिव्यक्ति और समाज के कहाँ देखेंगे? दर्पण की भाँति है। यह दर्पण अब छिन्न-भिन्न हो चुका हैं। लोक की छवियाँ अब हम कहाँ देखेंगे?
भारत की हर भाषा में सास-ननद, देवर पर अनेक लोक गीत प्रचलित हैं। हर त्योहार, हर संस्कार, मौसम और सिपाहियों की पत्नियों के मन का असीम दर्द, पीड़ा और वेदना के अनगिनत लोक गीत हैं। लोक गीत एकल, सामूहिक जन जीवन की अंतरात्मा में प्रवाहित हो कर अभिव्यक्ति के रूप में सामने आता है। जहाँ भी अवसर मिलता है, लोक गीत में माधुर्य और प्रसन्नता दिखाई देती है। हँसी-मजाक का तो कहना क्या। लोक गीतों में मानो लोक की सारी जीवंतता उमड़ पड़ी है। यह भी कहा जा सकता है कि लोक गीत समूची सृष्टि के लोक जीवन की अनमोल धरोहर है। यह एक ऐसी अनमोल निधि है जिसे बड़े ही जतन से व सहेज कर भावी पीढ़ी को सौपने की जरूरत है, ताकि भविष्य में भी इसका अस्तित्व बना रहे।
मोह न छोड़्यो मोर महतारी
एक कोखि के भैया बहिनिया
एकहि दूध पियायो महतारी
भैया के भए बाजै अनद बधैया
हमरे भए काहे रोयो महतारी ?
भैया का दिह्यो मैया लाली चौपरिया
हमका दिह्यो परदेस महतारी
सँकरी गलिय होइके डोला जो निकरा
छूटा आपन देस महतारी
बेटा के जनम में त सोहर गवइल अरे सोहर गवइल
हमार बेरिया, काहे मातम मनइल हमार बेरिया
(मुझे मत छोड़ना, माँ। एक ही गर्भ से हैं हम भाई-बहन, फिर भी तुमने एक को ही दूध पिलाया। भाई के जन्म पर बहुत बधाई आई और उत्सव मने, पर मेरे जन्म पर क्यों रोई? भाई को बहुत कुछ मिला घर का, मुझे परदेस क्यों मिला ? जब मेरी डोली निकली (बिदाई) तो मुझसे हमारा देश (मायका) तक छूट गया? बेटे के जन्म पर सोहर गाया गया और बेटी के जन्म पर मातम क्यों मनाया गया?)
इन तमाम उदाहरणों के जरिये यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र, मगध से ले कर अवध तक, में जेंडर के आधार पर होनेवाले भेदभाव को ले कर कमोबेश एक जैसा सोच झलकता है और यहाँ बोली जानेवाली लगभग हर भाषा में इस तरह के गीत मिलते हैं, जिनमें स्त्रियाँ अलग-अलग तरह से अपनी अभिव्यक्ति करती हैं, अपने साथ होनेवाले भेदभाव पर सवाल उठाती हैं।
यह काफी सोचनीय विषय है कि उदारीकरण और बाजारीकरण के मूल्यों ने समाज और राजनीति के स्तर पर संरचनाओं में काफी परिवर्तन किया है। लोक संस्कृति का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। पारंपरिक लोक गीत एक प्रकार से गायब होते जा रहे हैं। अब इस क्षेत्र में भी, जो आदि काल से स्त्रियों के लिए एक स्पेस था, उस पर बाजार की नजर टिकी हुई है, जिसने स्त्री को उसकी पारंपरिक जमीन से विस्थापित कर दिया है। यह स्थिति किसी एक संस्कृति में नहीं है, बल्कि हर संस्कृति में, चाहे वह भोजपुरी हो या मैथिली हो या फिर अवधी, बुंदेली एवं मगधी, हर लोक संस्कृति में है। यह भी कहा जा सकता है कि लोक गीत और लोक साहित्य किसी भी समाज में दमित आवाजों की अभिव्यक्ति और समाज के कहाँ देखेंगे? दर्पण की भाँति है। यह दर्पण अब छिन्न-भिन्न हो चुका हैं। लोक की छवियाँ अब हम कहाँ देखेंगे?
भारत की हर भाषा में सास-ननद, देवर पर अनेक लोक गीत प्रचलित हैं। हर त्योहार, हर संस्कार, मौसम और सिपाहियों की पत्नियों के मन का असीम दर्द, पीड़ा और वेदना के अनगिनत लोक गीत हैं। लोक गीत एकल, सामूहिक जन जीवन की अंतरात्मा में प्रवाहित हो कर अभिव्यक्ति के रूप में सामने आता है। जहाँ भी अवसर मिलता है, लोक गीत में माधुर्य और प्रसन्नता दिखाई देती है। हँसी-मजाक का तो कहना क्या। लोक गीतों में मानो लोक की सारी जीवंतता उमड़ पड़ी है। यह भी कहा जा सकता है कि लोक गीत समूची सृष्टि के लोक जीवन की अनमोल धरोहर है। यह एक ऐसी अनमोल निधि है जिसे बड़े ही जतन से व सहेज कर भावी पीढ़ी को सौपने की जरूरत है, ताकि भविष्य में भी इसका अस्तित्व बना रहे।
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