भाषा मतलब बोली। यह
बोली इंसान के आचार-विचार, व्यवहार का इजहार है। संप्रेषण का
माध्यम है। इसमें जिन्दगानी है, विकास की कहानी। यह भाषा दुनिया के विकसित देशों के लिए सही अर्थों में बोली
है। लेकिन हमारे देश में यह बंदूक की गोली है। दुनिया को इसने जिंदा किया है, स्वस्थ मानसिकता दी है, आगे बढ़ाया है। हमारे यहां इसने मारने का काम किया है, बीमार मानसिकता दी है। पीछे किया है।
अपनी मातृभाषा इंसान
की नैसर्गिक ताकत होती है। इसमें अन्यभाषा जुड़ जावे यह उस नैसर्गिकता की उपलब्धी
हो सकती है। इनमें रिश्ता बड़ी बहन, छोटी बहन का हो सकता है। मां मौसी का हो सकता है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि
हमारे देश में यह रिश्ता मालिक नौकर का बना दिया गया है।
इंदौर के एक विधायक
ने प्रधानमंत्री के शहीद आजाद की जन्मस्थली आगमन पर अखबार में विज्ञापन दिया।
उसमें उसने आदिवासी उन्मूलन छापा है। हंगामा हो गया। मामला राज्यसभा तक पहुंच गया। विधायक का कथन है कि उनका आशय
उन्मूलन नहीं उन्नयन था। मुझसे कुछ छात्रों ने पूछा यह उन्मूलन क्या है? उन्ननयन क्या है? जब आज के पढ़े लिखों की यह
स्थिति है तो विधायक से जो गलती हुई है, वह भाषा की त्रुटि है, विधायक को जब उच्च हिन्दी का ज्ञान नहीं है,
तो उन्हें अपनी सामान्य
बोलचाल की भाषा में काम करना चाहिए, जिससे भाषा के पाखंड का बवंडर खड़ा न हो। इसी तरह करीब ३०-३५
वर्ष पूर्व म.प्र. विधानसभा में आठ आदिवासी विधायकों ने हिन्दी में शपथ ली थी।
उनसे उच्चारण में गलती हो गई। वे अपमानित हुए थे। मीडिया ने उनका मजाक उड़ाया था।
हिन्दी के पंडित अन्य भारतीय भाषाओं के साथ अन्याय वही करते हैं, जो अंग्रेजी वाले हिन्दी
वालों के साथ करते रहे हैं।
भाषा तीन युगों का
षड्यंत्र है। पहले संस्कृत, दूसरे फारसी और तीसरी अंग्रेजी। हमारे देश पर जिस-जिस जब-जब ने राज किया,
उन्होंने राज करने की बोली
अलग और जनता की बोली अलग रखी। राजाओं के समय पंडितों की चली सम्मान संस्कृत को
मिला। बादशाहों के समय काजी मुल्लाओं की चली, सम्मान फारसी को मिला। अंग्रेजों के समय अंग्रेजों
की चली सम्मान अंग्रेजी को मिला।
अंग्रेजी अंग्रेजों
की देशी मातृ है, लेकिन उसमें लेटिन अंग्रेजी हावी है। यह अंग्रेजों के अभिजात्य वर्ग की
श्रेष्ठ वर्ग की भाषा है। आजकल हमारे देश के अंग्रेजी बोलने वालों पर यह लेटिन
अंग्रेजी भारी है। इसी तरह उर्दू पर फारसी और हिन्दी पर संस्कृत भारी रही है। एक
मराठी, बंगाली, सिन्धी, पंजाबी, तमिल, तेलगू, कन्नड़, आदि बोली बोलने वाले के उच्चारण में हिन्दी की स्पष्टता नहीं आ पाती है।
हिन्दी अभी अभी डेढ़ दो सौ वर्षों में बड़ी बहन तो बढ़ती गई यह करीब 80 करोड़ लोगों की
भाषा बन गईद्य लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं
को जो उसकी छोटी बहने थी ख्याली नहीं करा सकी। यदि देशभर के स्कूल कॉलेजों में
पढ़ाई और डीग्री के साथ एक दो भारतीय भाषाओं को जोड़ा जाता तो सभी भारतीय भाषाएँ एक
दूसरे के नजदीक आती उनका सम्मान बढ़ता। देश की एकता की दिशा में यह ठोस कदम होता।
इसके नहीं होने में भी मूल कारण अंग्रेजी ही रही है यह महारानी बन गई और अन्य
भाषाएँ दासी बन गई। महारानी की गुलामी में अंग्रेजी को पंख लगा दिये । वो पूरे देश
के गाँव गाँव मोहल्लो में फैल गई। आज देश में सभी दूर अंग्रेजी मीडियम बोर्ड लिखे
मिल जाएंगे। आगे बढ़ने का योग्यता का यही मापदंड है। विकसित हुई भाषा है। यह अन्य
भारतीय भाषाओं की बड़ी बहन थी। हिन्दी के पंडितों ने संस्कृत के पंडितों से गठबंधन
कर इसमें ऐसा तड़का लगाया कि जनसामान्य से दूर हो जावे। रेलगाड़ी को लोहपथगामिनी,
राष्ट्रपति, कुलपति और ऐसे अनेक शब्द
जिन्होंने भाषा को गरिष्ठ और क्लिंट बनाया है। दक्षिण भारत में आज भी हिन्दी को
राष्ट्रभाषा कहने पर पूरी जनता खिलाफ में खड़ी हो जाती है। लोकसभा, राज्यसभा में दक्षिण भारत के
सांसद खिलाफ में खड़े हो जाते हैं। वजह उन्हें लगता है कि उन पर हिन्दी थोपकर
हिन्दी वाले राज करेंगे। उन्हें नीचा दिखाएंगे। वे हिन्दी के बदले अंग्रेजी को गले
लगाए घूमते हैं। यह दुर्भाग्य है हमारे देश का, लेकिन हम घटनाओं से सीखते नहीं हैं। बात बिगाड़ते
हैं। भारतीय फिल्मों में भी हिन्दी को बढ़ाने में सर्वाधिक योगदान दिया है, लेकिन आप फिल्मी सितारों को
देखिए, फिल्म पेâयर अवार्ड को देखिए, ये दूध-रोटी हिन्दी की खाते
हैं, लेकिन बच्चे
अंग्रेजी के पैदा करते हैं।
हमारा देश सर के बल
खड़ा है, यही उसका विकास पथ
है। एक बच्चा स्वूâल से आकर रोज रटता था वेल, एक बच्चा रटता था टेप, वह बहुत मुश्किलों से रट पाए। रटते-रटते बीमार हो गए, उन्हें बुखार आ गया। जब उन्हें बतलाया गया कि वेल
मतलब कुआ और टेप मतलब नल घर में ही हैं। तो वो खुशी से उछल पड़े।
कई बार लिखा जा चुका
है, कहा जा चुका चुका है,
सब जानते हैं कि दुनिया में
आगी वही बढ़ा है, विकसित देश वही है, जिसकी अपनी मातृभाषा उस पर हमें गर्व है। जापान, जर्मनी, इटली, प्रेंâस, अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, चीन अपनी मातृभाषा से उठे हैं और दुनिया में गर्व
से सीना तान कर खड़े हुए हैं।
मैंने स्कूल कालेजों
में अपने सम्बोधनों में बहुत सी बार कहा है कि हमे सिखाया गया था अंग्रेजी में काम
न होगा। फिर से देश गुलाम न होगा। यह कल भी सच था, आज भी सच है।, लेकिन देश काल और परिस्थितियां बदल गई हैं। आज
अंग्रेजी इस देश के खून में घुस चुकी है। अब खतरा अंग्रेजी से नहीं, अंग्रेजियत से है। अंग्रेजी
एक भाषा है, भाषा कोई बुरी नहीं
होती है। सब खुबसूरत होती है। शेकसपियर हो गया कालीदास दोनों एक से बढ़कर एक हैं,
लेकिन फर्क यह आ गया है कि पानी
हमारे मुल्क में वॉटर हो गया है। जवाहर लाल नेहरू जेएन हो गए। जयप्रकाश जेपी,
रामचन्द्र आरसी, अब्दुल रहमान एआर, मां मम्मी, बाबूजी डेडी, काका, चाचा अंकल हो गए हैं। काकी आंटी हो गई हैं। इसमें
कोई दिक्कत नहीं है। यह सब भाषा की खूबसूरती है, गतिशीलता है, निरतंतरता है। तकलीफ यह है कि पानी छोटा और वॉटर
बड़ा नजर आता है। मां छोटी और मम्मी बड़ी नजर आती है। अंग्रेजी सभ्य लोगों की भाषा
है। हमने अंग्रेजी नहीं अंग्रेजियत ग्रहण कर ली है। हाऊ टू मीट, हाऊ टू सीट, एण्ड हाऊ टू ईट तो हमने सीख
लिया है। लेकिन हाऊ टू ट्रीट हम भूल गए हैं। हम हर मामले में हाऊ टू ट्रीट मतलब
व्यवहार में फर्क करते हैं। भाषा भी उनमें से एक है। कोई भी जगह हो, कहीं भी हो, पांच लोग हों, या पचास लोग हों। ट्रेन में
हों या प्लेन में हों। दो लोगों को भी अंग्रेजी आती है या एक को भी आती है,
तो वह अंग्रेजी बोलने लगता
है। अंग्रेजी में इसे असभ्यता कहते हैं। भारत इसमें अपने गौरव ढूंढ रहा है।
अगले पचास बरस बाद
संभव है कि भारतीय भाषाएं लुप्त हो जाए। हिन्दी जो आज अस्सी करोड़ से अधिक लोगों की
बोली बन गई है। गुम होने लगे और उससे ज्यादा अंग्रेजी हो जावे। उसी तरह जिस तरह
८.८ चौसठ और ७ ७ उनपचास इतिहास की धरोहर बन रहे हैं। यह गायब होना इतने दुख की बात
नहीं होगी, क्योंकि हमारे देश
की मूलमात्र भाषाओं से ही हिन्दी तैयार हुई है। जिससे हम उठ खड़े हुए हैं, लेकिन दुख की बात यह होगी कि
अंग्रेजी की जगह अंग्रेजीयत हम पर भारी होगी।
हमारे यहां गीत
संगीत का वातावरण है, मेरे पोते के लिए स्कूल से संदेशा आया है कि ये हिन्दी गाने गाते हैं। उन्हें
अंग्रेजी गाने सिखाइए अन्यथा बाद में पछताएंगे। उनके लिए अंग्रेजी की सीडी खरीदी
जा रही है।
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